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कविता

फिर भी मुस्कुरा दिया
हेमन्त कुमार शर्मा
ग़म थे ज़माने भर के, फिर भी मुस्कुरा दिया। फूल होने का, फ़र्ज़ अदा किया। काग़ज़ और पैन का, समझोता टूटा। लिखता वो, काग़ज़ की
ख़ास
विनय विश्वा
मनुष्य गुणों से ही तो ख़ास होता है इसीलिए तो वह दिल के पास होता है। ईश्वर के अवतारी युग– त्रेता हो या द्वापर राम के
धरती का शृंगार मिटा है
राघवेंद्र सिंह
धधक उठी है ज्वालित धरती, जल थल अम्बर धधक उठा है। अंगारों की विष बूँदों से, प्रणय काल भी भभक उठा है। सूख गए हैं तृण-त
जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है
केदारनाथ अग्रवाल
जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है तूफ़ानों से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है जिसने सोने को खोदा लोहा मोड़ा है जो रवि के रथ
बिन तेल की बाती
मयंक द्विवेदी
देख बिन तेल की बाती को रजनी के अंधेरे भाग रहे देख धधकती ज्वाला में अपने सूत के अंग-अंग को आनंद की इस अनुभूति में प्
ख़ामोशियाँ
आनन्द कुमार 'आनन्दम्'
ख़ामोशियाँ बहुत कुछ कहती हैं धीरे-से, हौले-से, चुपके-से ख़ामोशियाँ बहुत कुछ कहती हैं। मन की बाट जोहती हैं बेसुध-बे
आगंतुक
अज्ञेय
आँखों ने देखा पर वाणी ने बखाना नहीं। भावना ने छुआ पर मन ने पहचाना नहीं। राह मैंने बहुत दिन देखी, तुम उस पर से आए भी, ग
अभिशप्त इच्छाएँ
प्रवीन 'पथिक'
सब कुछ बिखर जाने के बाद; पथ-परिवर्तन के बाद; और स्मृतियों का गला घोंटने के बाद भी लगता है, कोई ऐसी बिंदु, कोई अवशेष, क
दुख बदली
हेमन्त कुमार शर्मा
कभी शाम के सिरहाने खड़े सूरज को देखा है, ढलते माथे पर दुख बदली की रेखा है। स्मरण किया उन व्यर्थ हुए मूल्यों का, नदी
स्वयं जलो
संजय राजभर 'समित'
जलो मत न जलाओ किसी को यदि जलाना है तो अंदर के विकारों को जलाओ अप्प दीपो भव: बनो कुंदन बनोगे आत्म चेतना जिस दिन जल ग
होली
गणेश भारद्वाज
सद्भावों की माला होली, ख़ुशियों की है खाला होली। रंग बसे हैं रग-रग इसकी, रंगों की है बाला होली॥ मन के शिकवे दूर करे य
अनुसरण कृष्ण का
हेमन्त कुमार शर्मा
शिथिल पाँव भोग के, विस्मरण भाव शोक के। कर्म से गति का अवसर, सम्यक ध्यान अहरहर। अनुसरण कृष्ण का। होली, अग्नि दहन ईर
बचपन
प्रवीन 'पथिक'
है याद आती, वह बातें पुरानी, वही प्यारा क़िस्सा, वह बीती कहानी। याद आता वह तेरा मुस्काता चेहरा, थी होती लड़ाई, पर था प
नहीं चाहता आसाँ हो जीवन
मयंक द्विवेदी
चाहे सौभाग्य स्वयं हो द्वार खडे, चाहे कर्ता भी हो भूल पड़े, नहीं चाहता आसाँ हो जीवन, चाहे मग में हो शूल गढ़े। जो पत्थ
बाँध ना पाया
हेमन्त कुमार शर्मा
व्यर्थ हुए सावन ने कहा― क्या कोई सम्भाल ना पाया, बहते-बहते पानी को, मुट्ठी में पकड़ ना पाया। यहाँ पुल तिनके से टूट
हम जिएँ न जिएँ दोस्त
केदारनाथ अग्रवाल
हम जिएँ न जिएँ दोस्त तुम जियो एक नौजवान की तरह, खेत में झूम रहे धान की तरह, मौत को मार रहे बान की तरह। हम जिएँ न जिए
जो सहज सुलभ हो
मयंक द्विवेदी
जो सहज सुलभ हो अमृत तो तुच्छ अमृत का क्यूँ पान करूँ इससे अच्छा तो विष पीकर विष का ही गुणगान करूँ कूल सिंधु के बैठे-
ऋतुराज बसंत
गणेश भारद्वाज
पहन बसंती चोला देखो, अब शील धरा सकुचाई है। कू-कू करती कोयल रानी, लो सबके मन को भाई है। हरयाली है वन-उपवन में, कण-कण म
शिव का सार
हेमन्त कुमार शर्मा
गहन क्लेश में सुख का आगार योग से प्राप्य शिव का सार। बृहद क्षेत्र में व्यापक आकाश सर, कल्प दिए सरलता से संवत्सर। न
मेरी कविताएँ
जयप्रकाश 'जय बाबू'
मेरी कविताएँ मेरा सहारा है मैंने जब जब उनको पुकारा है वह साथ देती है मेरा हर वक्त फैलाती दिल में उजियारा है मेरी क
प्रेम
रोहित सैनी
प्रेम! धूप है हमारे चेहरे की... सितारों की जग-मगाहट, जिसमें... सब कुछ सुंदर दिखता है शीतल, शांत, मद्धम रौशनी है चाँद की।
तेल की कमी में बाती
रोहित सैनी
जैसे मौत आती है; और... "है" का "था" हो जाता है! दीप आँधियों में एकदम से बुझ जाते हैं! तेल की कमी में बाती... टिमटिमाती है कु
वह तुम हो
रोहित सैनी
"अर्धनारीश्वर" की "अवधारणा" तुम्हीं से पूर्ण होगी "पायल" "डमरू" की डम-डम में जो छन-छन है उधार! वह तुम हो, वह तुम हो। इस स
सब एक जैसी नहीं होती
संजय राजभर 'समित'
एक तरफ़ समर्पण था निष्कलंक, निष्छल असीम प्रेम था पर मेरे दिमाग़ में एक वहम थी एक बस छूटेगी तो दूसरी मिलेगी फिर कली-क
आशंका
प्रवीन 'पथिक'
एक घना अँधेरा! मेरी तरफ़ आता है मुँह बाए, और ढक देता सम्पूर्ण जीवन को; अपनी कालिमा से। किसी सुरंगमय कंदराओं में से, स
बिंदु-बिंदु शिल्पकार है
मयंक द्विवेदी
सीमित ना हो दायरा उर के द्वार का, प्रकृति भी देती परिचय दाता उदार का। यूँ ही नहीं होता सृजन उपलब्धि के आधार का, छूपी
हे! मृदु मलयानिल अनुभूति
राघवेंद्र सिंह
हे! अंतस की चिर विभूति, हे! मृदु मलयानिल अनुभूति। तुमसे ही होते मुखर भाव, कम्पित पुलकित दृग के विभाव। तुम लेकर आती
हे राम!
प्रवीन 'पथिक'
हे राम! तुम्हारे जीवन की झाँकियाॅं, मेरे अंतर्मन को रुदन जल से अभिसिंचित कर, कृतार्थ करती है, जो मुझे पुण्य मार्ग क
धरे रहे सब ख़्वाब
हेमन्त कुमार शर्मा
धरे रहे सब ख़्वाब, आँखें बोझिल थी। आसूँ की सौग़ात, सावन को भी मात, हाथों में नहीं हाथ, छूटा स्नेह का साथ, पर मधुर रहा ब
खिचड़ी
सुषमा दीक्षित शुक्ला
खिचड़ी का अर्थ है एकता ये है अनेकता में एकता खिचड़ी का अर्थ है प्यार ये सादगी का अद्भुत त्यौहार सामंजस्य भी है इसका

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