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कविता

आव्हान
सुनीता प्रशांत
“या देवी सर्वभूतेषु शक्ति-रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥” क्या आशय समझूँ मैं इसका मज़
मैं हिंदी हूँ
सुनीता प्रशांत
सबकी जानी पहचानी सबकी प्यारी अपनी अपनी भावना मैं मन की भाषा मैं जन जन की व्यक्त मैं, अभिव्यक्त मैं सार मैं, अभिसार
कृष्ण
सुनीता प्रशांत
कृष्ण तो बस कृष्ण थे सुंदर चितवन नंद नंदन थे बालक थे तो जैसे चंचल मन युवा वस्था जैसे वसुंधरा वसन स्मित हास्य हो जै
सावन
सुनीता प्रशांत
ये कौन उत्सव आया सखी री मन क्यों कर मुसकाया सखी री मेघ गरज कर मृदंग बजाते मधुकर मधुर तान सुनाते फूल ये क्यूँ सकुच
प्रिय तुम कुछ बोलो
सुनीता प्रशांत
प्रिय तुम कुछ बोलो झोली शब्दों की खोलो थाम लूँगी उन शब्दों को सजा लूँगी माथे पर सहेजूँगी जीवन भर समेट लूँगी उन्हे
ग्रीष्म ऋतु
सुनीता प्रशांत
आकाश हो गया चुप धरा ने धरा मौन मन हुआ कुछ उदास ये मौसम आया कौन हवा हो रही ऊष्ण भास्कर भी तमतमाया घने वृक्षों की डाल
अहसास
सुनीता प्रशांत
छोड़ आई जो माँ की गली वो गली गुम गई है वो राह तकती दो आँखें हमेशा के लिए बंद हो गई हैं वो मोहल्ला भी नहीं रहा वो लोग भ
उड़ो तुम लड़कियों
सुनीता प्रशांत
उड़ो तुम लड़कियों छू लो आसमान कर लो मुठ्ठी में सारा जहान तोड़ दो दीवारे जो रोकती हैं तुम्हे छोड़ दो वो बंदिशे जो ब
जंगली मन
सुनीता प्रशांत
इन हरे भरे जंगली पेड़ों जैसे मैं भी हरी भरी हो जाऊँ मनचाहा आकार ले लूँ कितनी भी बढ़ जाऊँ फैल जाऊँ दूर-दूर तक या आका
अनकही बातें
प्रवीन 'पथिक'
कभी कभी जीवन में भी कुछ ऐसा क्षण आता है, दर्द सिसकता है भीतर, मुस्कान दिखाया जाता है। मन की मायूसी का जब, चीत्कार उठत
कठपुतली
अजय कुमार 'अजेय'
अंग-अंग पर बाँधे धागे, तभी हिले जब हिलते तागे। कठपुतली है नाम कहाई, मन को सबके भाती ताई। कभी प्रसन्न कभी यह रूठी, ल
पेड़ की व्यथा
हेमन्त कुमार शर्मा
पेड़ की व्यथा, आँसुओं की कथा। यह कुछ पीली मशीनें, यह कुछ आरी सी कीलें। रस्सी के फंदे, जमघट मज़दूरों का, पेड़ अकेला थ
मानवता बेहाल
ममता शर्मा 'अंचल'
घर के पीछे आम हो, और द्वार पर नीम, एक वैद्य बन जाएगा, दूजा बने हकीम। पीपल की ममता मिले, औ बरगद की छाँव, सपने आएँ सगुन क
संकटों के साधकों
मयंक द्विवेदी
हे संकटों के साधकों अब इन कंटकों को चाह लो समय दे रहा चुनौती जब कुंद को नयी धार दो वार पर अब वार हो और प्रयत्नों की ब
चलो पथिक
मयंक द्विवेदी
सुगम पथ की राहों पर चलना भी क्या चलना है राह सीधी तो सबने देखी जाँची परखी अपनी मानी कहो दुर्गम अनजानी राहों के मंज
किसी पुस्तक के किसी पन्ने पर
हेमन्त कुमार शर्मा
किसी पुस्तक के किसी पन्ने पर, दिखाई दिया, एक कतरन नुमा काग़ज़। लिखा था कल क्या क्या, सामान लाना है, घर चलाने को। शायद
पर्यावरण
डॉ॰ राम कुमार झा 'निकुंज'
चलो बचाएँ प्रकृति धरा को, वृक्षारोपण मिल साथ करें। बाढ़, भूकम्प तूफ़ाँ कहर ताप, पर्यावरण प्रदूषण मुक्त करें। हव
हे तथागत ये बताओं
मयंक द्विवेदी
हे तथागत ये बताओ जीवन का क्या मर्म है? कैसे हो जीवन का उद्धार क्या संन्यास ही है मुक्ति का द्वार कैसे सम्भव है जन्म
बिखरे ना परिवार हमारा
अंकुर सिंह
भैया न्याय की बातें कर लो, सार्थक पहल इक रख लो। एक माँ की हम दो औलादें, निज अनुज पे रहम कर दो॥ हो रहा परिवार की किरकि
ऊहापोह
प्रवीन 'पथिक'
रात ढली ही नहीं! करवट बदलता रहा बिछौने पर। ऑंखों में रौद्र की लालिमा; मस्तिक में प्रश्नों का तूफ़ान; जीवन की आद्योप
मैं चिर निर्वासित दीपक हूँ
राघवेंद्र सिंह
दिनकर-सी चाह नहीं मेरी, उद्घोषित राह नहीं मेरी। निर्भीक, निडर, निश्चल-सा मैं, प्रतिदिन, प्रतिक्षण, प्रतिपल-सा मैं।
ऐ कविता!
सुषमा दीक्षित शुक्ला
ऐ कविता! शायद तू मेरी सहेली है, तू प्यारी सी कोई पहेली है। नीरसता में रस भर देती, तू अलबेली है सच तू अलबेली है। ऐ कवि
फिर भी मुस्कुरा दिया
हेमन्त कुमार शर्मा
ग़म थे ज़माने भर के, फिर भी मुस्कुरा दिया। फूल होने का, फ़र्ज़ अदा किया। काग़ज़ और पैन का, समझोता टूटा। लिखता वो, काग़ज़ की
ख़ास
विनय विश्वा
मनुष्य गुणों से ही तो ख़ास होता है इसीलिए तो वह दिल के पास होता है। ईश्वर के अवतारी युग– त्रेता हो या द्वापर राम के
धरती का शृंगार मिटा है
राघवेंद्र सिंह
धधक उठी है ज्वालित धरती, जल थल अम्बर धधक उठा है। अंगारों की विष बूँदों से, प्रणय काल भी भभक उठा है। सूख गए हैं तृण-त
जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है
केदारनाथ अग्रवाल
जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है तूफ़ानों से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है जिसने सोने को खोदा लोहा मोड़ा है जो रवि के रथ
बिन तेल की बाती
मयंक द्विवेदी
देख बिन तेल की बाती को रजनी के अंधेरे भाग रहे देख धधकती ज्वाला में अपने सूत के अंग-अंग को आनंद की इस अनुभूति में प्
ख़ामोशियाँ
आनन्द कुमार 'आनन्दम्'
ख़ामोशियाँ बहुत कुछ कहती हैं धीरे-से, हौले-से, चुपके-से ख़ामोशियाँ बहुत कुछ कहती हैं। मन की बाट जोहती हैं बेसुध-बे
आगंतुक
अज्ञेय
आँखों ने देखा पर वाणी ने बखाना नहीं। भावना ने छुआ पर मन ने पहचाना नहीं। राह मैंने बहुत दिन देखी, तुम उस पर से आए भी, ग
अभिशप्त इच्छाएँ
प्रवीन 'पथिक'
सब कुछ बिखर जाने के बाद; पथ-परिवर्तन के बाद; और स्मृतियों का गला घोंटने के बाद भी लगता है, कोई ऐसी बिंदु, कोई अवशेष, क

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