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कहानी

दो बाँके
भगवती चरण वर्मा
शायद ही कोई ऐसा अभागा हो, जिसने लखनऊ का नाम न सुना हो, और युक्त प्रांत में ही नहीं, बल्कि सारे हिंदुस्तान न में, और मैं
प्रायश्चित
भगवती चरण वर्मा
अगर कबरी बिल्ली घर-भर में किसी से प्रेम करती थी तो रामू की बहू से, और अगर रामू की बहू घर-भर में किसी से घृणा करती थी तो
दुखवा मैं कासे कहूँ मोरी सजनी
चतुरसेन शास्त्री
गर्मी के दिन थे। बादशाह ने उसी फाल्गुन में सलीमा से नई शादी की थी। सल्तनत के सब झंझटों से दूर रहकर नई दुलहिन के साथ प
चूहा और मैं
हरिशंकर परसाई
चाहता तो लेख का शीर्षक मैं और चूहा रख सकता था। पर मेरा अहंकार इस चूहे ने नीचे कर दिया। जो मैं नहीं कर सकता, वह मेरे घर
भोलाराम का जीव
हरिशंकर परसाई
ऐसा कभी नहीं हुआ था... धर्मराज लाखों वर्षों से असंख्य आदमियों को कर्म और सिफ़ारिश के आधार पर स्वर्ग या नर्क में निव
दो हाथ
इस्मत चुग़ताई
राम अवतार लाम पर से वापस आ रहा था। बूढ़ी मेहतरानी अब्बा मियाँ से चिट्ठी पढ़वाने आई थी। राम अवतार को छुट्टी मिल गई। जं
लिहाफ़
इस्मत चुग़ताई
जब मैं जाड़ों में लिहाफ़ ओढ़ती हूँ, तो पास की दीवारों पर उसकी परछाईं हाथी की तरह झूमती हुई मालूम होती है और एक दम से मेरा
जड़ें
इस्मत चुग़ताई
सब के चेहरे फ़क़ थे घर में खाना भी न पका था। आज छटा रोज़ था। बच्चे स्कूल छोड़े घरों में बैठे अपनी और सारे घर वालों की ज़िंद
चौथी का जोड़ा
इस्मत चुग़ताई
सहदरी के चौके पर आज फिर साफ़-सुथरी जाज़िम बिछी थी। टूटी-फूटी खपरैल की झिर्रियों में से धूप के आड़े तिरछे क़त्ले पूरे दाल
नन्हों
शिव प्रसाद सिंह
चिट्ठी-डाकिए ने दरवाज़े पर दस्‍तक दी तो नन्हों सहुआइन ने दाल की बटुली पर यों कलछी मारी जैसे सारा क़सूर बटुली का ही है।
पाज़ेब
जैनेंद्र कुमार
बाज़ार में एक नई तरह की पाज़ेब चली है। पैरों में पड़कर वे बड़ी अच्छी मालूम होती हैं। उनकी कड़ियाँ आपस में लचक के साथ जु
पत्नी
जैनेंद्र कुमार
शहर के एक ओर एक तिरस्कृत मकान। दूसरा तल्ला। वहाँ चौके में एक स्त्री अँगीठी सामने लिए बैठी है। अँगीठी की आग राख हुई ज
खेल
जैनेंद्र कुमार
मौन-मुग्ध संध्या स्मित प्रकाश से हँस रही थी। उस समय गंगा के निर्जन बालुका-तीर पर एक बालक और एक बालिका अपने को और सार
पंच परमेश्वर
प्रेमचंद
१ जुम्मन शेख़ और अलगू चौधरी में गाढ़ी मित्रता थी। साझे में खेती होती थी। कुछ लेन-देन में भी साझा था। एक को दूसरे पर अ
गुलकी बन्नो
धर्मवीर भारती
‘‘ऐ मर कलमुँहे!’ अकस्मात् घेघा बुआ ने कूड़ा फेंकने के लिए दरवाज़ा खोला और चौतरे पर बैठे मिरवा को गाते हुए देखकर कहा,
एहसास
आशीष कुमार
मल्होत्रा परिवार की लाडली पद्मिनी उर्फ़ पम्मी ख़ुश-मिज़ाज लड़की थी। सुंदरता ऐसी की चाँद भी शरमा जाए। गोल मटोल मासूम स
बिन बुलाया मेहमान
आशीष कुमार
वह आता है। रोज़ आता है। बिन बुलाए आता है। वह जो मेरा कुछ भी नहीं लगता पर मेरा बहुत कुछ है। उसे देखे बिना मैं नहीं रह सक
ठेस
फणीश्वरनाथ रेणु
खेती-बारी के समय, गाँव के किसान सिरचन की गिनती नहीं करते। लोग उसको बेकार ही नहीं, 'बेगार' समझते हैं। इसलिए, खेत-खलिहान
शत्रु
अज्ञेय
ज्ञान को एक रात सोते समय भगवान ने स्वप्न में दर्शन दिए और कहा, “ज्ञान, मैंने तुम्हें अपना प्रतिनिधि बनाकर संसार में
पंच से पक्षकार
अंकुर सिंह
हरिप्रसाद और रामप्रसाद दोनों सगे भाई थे। उम्र के आख़िरी पड़ाव तक दोनों के रिश्ते ठीक-ठाक थे। दोनों ने आपसी सहमति से
मुक्ति-मार्ग
प्रेमचंद
सिपाही को अपनी लाल पगड़ी पर, सुंदरी को अपने गहनों पर और वैद्य को अपने सामने बैठे हुए रोगियों पर जो घमंड होता है, वही क
नशा
प्रेमचंद
ईश्वरी एक बड़े ज़मींदार का लड़का था और मैं एक ग़रीब क्लर्क का, जिसके पास मेहनत-मजूरी के सिवा और कोई जायदाद न थी। हम द
कामयाबी
अंकुर सिंह
ठाकुर वंशीलाल हीरापुर गाँव के बड़े प्रतिष्ठित व्यक्ति थे, साथ में क्षेत्र के कई गावों में ठाकुर साहब की सामाजिक और
हृदय परिवर्तन
अंकुर सिंह
"अच्छा माँ, मैं चलता हूँ ऑफ़िस आफिस को लेट हो रहा है। शाम को थोड़ा लेट आऊँगा आप और पापा टाइम से डिनर कर लेना।" अंकित ने
आईना
अंकुर सिंह
"बेटा सुनील, मैंने पूरे जीवन की कमाई नेहा की पढ़ाई में लगा दी, मेरे पास दहेज में देने के लिए कुछ भी नहीं है।" शिवनाराय
ख़ुदकुशी क्यूँ की?
सुषमा दीक्षित शुक्ला
27 वर्षीय रोहित सरकारी बैंक में मैनेजर के पद पर तैनात था, जिसका विवाह 2 वर्ष पूर्व ख़ूबसूरत दीपिका से हुआ था। दोनों का
मुक्त आकाश
सुधीर श्रीवास्तव
घनघोर वारिश के बीच कच्चे जंगली रास्ते पर भीगता काँपता हुआ सचिन घर की ओर बढ़ रहा था। उसे माँ की चिंता हो रही थी, जो इस व
उपहार
सुधीर श्रीवास्तव
आज रक्षाबंधन का त्योहार था। मेरी कोई बहन तो थी नहीं जो मुझे (श्रीश) कुछ भी उत्साह होता। न ही मुझे किसी की प्रतीक्षा म
सफ़र से हमसफ़र
अंकुर सिंह
ये सीट मेरी है, विजयवाड़ा स्टेशन पर इतना सुनते अमित ने पीछे मुड़कर देखा तो एक हमउम्र की लड़की एक हाथ में स्मार्ट फोन
भोर की प्रतीक्षा में
प्रवीण श्रीवास्तव
सुधा गृह कार्य से निपटकर आराम करने की ही सोच रही थी कि अचानक किसी ने दरवाज़े पर दस्तक दी। मन ही मन कुढ़ती हुई सुधा दरवा

और देखे..

            

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