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आन-बान और शान की प्रतीक हैं टोपियाँ (लेख) Editior's Choice

सर्द मौसम है कभी बादल सूर्य को आग़ोश में ले लेते हैं कभी सूरज देवता बादलों को पछाड़कर धूप फेंकते यहाँ वहाँ नज़र आ जाते हैं, कभी पेड़ो के झुरमुट में, कभी आसमान में प्रचंड चमकते, कभी खेतों के पीछे, कभी पहाड़ियों में धीरे-धीरे सरकते कभी नदी का माथा चूमते किंतु इस धूप में ताबिश नहीं है। बनिस्बत इसके सर्दी की धूप में कहीं न कहीं नमी भी है। ज़रा सा धूप मलने का मन हो देह में तो एक चुभन भरी हवा चेहरे को छूकर, सर्र से कानों से होकर गुज़र जाती है।

फिर क्या किया जाए? नमी और कोहरे भरे दिन से धूप का आँख-मिचौली करना कहाँ सुकून दे पाता है ठिठुरते शरीर को। झट से ओढ़ लिए जाते हैं शाल, स्कार्फ़, कैप या टोपी तब कहीं जाकर निजात मिल पाती है ठंड से।
कड़कड़ाती ठंड हो और दाँत किटकिटा रहे हों ऐसे में टोपी, स्कार्फ़ मफ़लर पहनने का ख़्याल न आए तो सर्दी का ज़िक्र करना ही बेईमानी है।

बाज़ार में रंग-बिरंगी विभिन्न आकार और डिज़ाइन वाली टोपियों की बहार है। ऑनलाईन सेल में भी टोपियाँ धकापेल बिक रही हैं और फ़ेसबुक में भी टोपी चैलेंज की बाढ़ आ गई हैं टोपी पहनी हुई तस्वीरों की, यक़ीनन बहुत ख़ूबसूरत दिखती हैं ये टोपी वाली तस्वीरें। यदाकदा मैं भी टोपी वाली तस्वीर पोस्ट कर देती हूँ फ़ेसबुक में।
मेरे फ़ेसबुक मित्र शशी रवांल्टा जी से एक दिन जानकारी मिली की उनको टोपियों का बहुत शौक है और रोचक संग्रह है उनके पास टोपियों का। उसी समय जिज्ञासा हुई मुझे टोपियों का इतिहास जानने की और विभिन्न प्रकार की टोपियों के बारे में पढ़ने की।
टोपियों के बारे में अनंत जानकारी उपलब्ध है विभिन्न साइट्स पर टोपियों के बारे में इतना लिखना संभव नहीं किंतु इतना जान पाई कि सिर को ढकने की परंपरा का आग़ाज़ तो भारत में ही हुआ किंतु रोमन, ग्रीक, फारस, हुण, कुषाण, मंगोल, मुग़ल आदि के काल में भारतीय परिधानों के साथ ही सिर के पहनावे में भी बदलाव आता गया।
नई टोपियाँ या साफे प्रचलन में आए और हम भारतीयों ने इनमें स्वयं को पहले की अपेक्षा ज़्यादा सहज महसूस किया।
सिर के पहनावे को कपालिका, शिरस्त्राण, शिरावस्त्र या सिरोवेष कहते हैं।
यह सिर का पहनावा हर प्रांत में अलग नाम व अलग रंग-रूप में होता है। हमारे यहाँ पगड़ी (साफा) और टोपी पहनने का प्रचलन है, दोनों में फ़र्क़ भी है और दोनों का अपना-अपना ढंग और परंपराएँ भी हैं धारण करने की।
पगड़ी का इतिहास ख़ासतौर पर राजपूत समुदाय से जुड़ा हुआ है। इसे पाग साफा और पगड़ी कहा जाता है।
यदि बात केवल साफे की हो तो मालवा में अलग प्रकार के और राजस्थान में अलग प्रकार का साफा बाँधा जाता है। जिसे फेटा भी कहा जाता है। महाराष्ट्र, गुजरात, हरियाणा, पंजाब में यह अलग होता है तो तमिलनाडु में अलग। राजस्थानी में मारवाड़ी साफा अलग होता है तो सामान्य राजस्थानी में अलग।
राजस्थान में राजपूत समाज में साफों के अलग-अलग रंगों व बाँधने की अलग-अलग शैली का इस्तेमाल समय के अनुसार होता है जैसे युद्ध के समय राजपूत सैनिक केसरिया साफा पहनते थे अतः केसरिया रंग का साफा युद्ध और शौर्य का प्रतीक बना, सामान्यतः बुज़ुर्ग ख़ाकी रंग का गोल साफा सिर पर पहनते हैं और विभिन्न समारोहों में पचरंगा, चुंदड़ी, लहरिया आदि रंग-बिरंगे साफो का प्रयोग होता है। सफ़ेद रंग का साफा शोक का पर्याय माना जाता है।
मुग़लों ने अफ़गानी ,पठानी और पंजाबी साफे को अपनाया।सिक्खों ने इन्हीं साफे को जड्डे में बदल दिया जो कि उन्हें एक अलग ही पहचान देता है।

हमारा भारत देश विविध परंपराओं, परिधानों एवं मान्यताओं का देश है। इसी देश के अवांतर भिन्न-भिन्न प्रांत हैं और उनकी वेश-भूषाएँ हैं जो उस प्रांत की विशिष्ट पहचान और संस्कृति को निर्धारित करती है उसी वेषभूषा का अभिन्न हिस्सा है 'टोपियाँ' जो सामाजिक प्रतिष्ठा के साथ-साथ हमें मौसम के अनुसार सुरक्षा प्रदान करती है। इन्हीं टोपियों में ख़ास टोपियाँ हैं उत्तराखंड की गढ़वाली टोपी, हिमाचली टोपी, नेपाली टोपी, तमिल टोपी, मणिपुरी टोपी, पठानी टोपी, हैदराबादी टोपी आदि अनेक प्रकार की टोपियाँ आज भी प्रचलन में हैं इन्हीं टोपियों की फ़ेहरिस्त में गांधी टोपी भी है जिसे कभी गांधी जी ने पहना होगा दरअसल।गांधी टोपी कि बात करें तो गांधी टोपी अमूमन खादी से बनाई जाती है और आगे और पीछे से जुड़ी हुई होती है तथा उसका मध्य भाग फूला हुआ होता है इस प्रकार की टोपी के साथ महात्मा गांधी का नाम जोड़कर इसे गांधी टोपी कहा जाता है किंतु इस का अर्थ ये नहीं कि गांधी जी ने इस टोपी का अविष्कार किया था। यहाँ इस बात का ज़िक्र करना माकूल है कि उत्तराखंड में पहनी जाने वाली टोपियाँ भी गांधी टोपी के रूप में प्रचलित हुईं, माना जाता है कि उत्तराखंड के मूल निवासियों की अपनी कोई विशेष पहाड़ी टोपी नहीं है यहाँ के मूल निवासी टोपी नहीं बल्कि पग्गड़ (ठांटा) पहनते थे। शंकराचार्य जब उत्तराखंड आए तो उनके साथ और उनके बाद काफ़ी मराठी ब्राह्मण भी यहाँ आए और फिर यहीं बस गए। मराठियों के साथ उनकी मराठी टोपी भी यहाँ आ गई उसके बाद यहाँ टोपी पहनने का चलन शुरु हो गया इस प्रकार जिसे उत्तराखंडी टोपी कहा जाता है वह मूलतः महाराष्ट्र से आई है लेकिन वे उजली टोपी पहनते थे जो बाद में गांधी टोपी कहलाई। आज़ादी के आंदोलन में यह स्वतंत्रता सेनानियों की पहचान बन गई थी किंतु टिहरी के राजा को सफ़ेद टोपी से चिढ़ हो गई थी क्योंकि इसे स्वाधीनता सेनानी पहनते थे अतः राजा ने सफ़ेद टोपियों पर प्रतिबंध लगा दिया और परिणामस्वरूप काली टोपी प्रचलन में आई।
एक दूसरी रामपुरी टोपी का ज़िक्र भी गांधी टोपी के संबंध में करते हैं। रामपुरी टोपी महात्मा गांधी के साथ आठ दशक पूर्व शुरु हुई। 1931 में जब बापू मोहम्मद अली जौहर से मिलने रामपुर पहुँचे थे उस वक़्त बी अम्मा (अबादी बानो बेगम) ने हाथों से बनी सूती कपड़े की टोपी महात्मा गांधी को भेंट की। यही टोपी बाद में गांधी टोपी के नाम से मशहूर हुई।
हिमाचल की टोपीयों का ज़िक्र न हो तो टोपियों की शान में गुस्ताख़ी होगी। हिमाचल प्रदेश अपने ख़ूबसूरत सौंदर्य, अपनी प्राचीन वेष-भूषा, खान-पान संस्कृति, कलाकृतियों व भिन्न-भिन्न परंपराओं के लिए जाना जाता है। हिमाचल की पहाड़ी टोपी को पहले बुज़ुर्ग ही अपने सर पर सजाते थे परंतु युवाओं में भी अपने परिधान अपनी परंपरा अथार्त अपनी थाती हिमाचली टोपी को पहनने का उत्साह दिख रहा है।

हिमाचली टोपी हिमाचली लोगों के जीवन में एक अहम स्थान रखती है। शादी-ब्याह, तीज, त्योहार या कोई भी मांगलिक कार्य का अवसर हो हिमाचली लोगों के इन अवसर पर टोपी पहनाने की परंपरा काफ़ी पुरानी है।
किसी राजनीतिक, फिल्मी या विदेशी हस्तियों को हिमाचलियों द्वारा टोपी पहनाकर स्वागत करना भी हिमाचलियों की परंपरा है और बहुत सम्मान की बात मानी जाती है। हिमाचली टोपियों का इस्तेमाल विभिन्न रंगों में किया जाता है जैसे हरा और लाल रंग, यह हिमाचल के गर्व से भी जुड़ा हुआ है क्योंकि यह मेहमानों के सम्मान में भी विवाह और अन्य उत्सवों के दौरान विशेष स्थान पाता है।

हिमाचली टोपियाँ तीन प्रकार की होती हैं:
कुल्लुवी टोपी (कुल्लु जिला)
बुशहरी टोपी (रामपुर, बुशहर)
किन्नोरी टोपी (किन्नौर)

यमुना घाटी के रंवाई में पहने जाने वाली टोपी 'रवांल्टी टोपी' के नाम से प्रसिद्ध है। रवांई में ऊन की बनीगोल टोपी प्रचलित है इसको 'सिकली', ‘सेकई' या ‘फेडसेकई’ कहते हैं। प्राय: बाजगी लोग जो पूर्व में वाद्ययंत्रों के साथ-साथ सिलाई का कार्य भी किया करते थे वही इसे बनाने में पारंगत होते थे। टोपी को बनाने के लिए वह एक गोलाकार आकृति का प्रयोग करते हैं जिसे साँचा कहा जाता है। टोपी को सुसज्जित करने के लिए कई बार स्थानीय लोग ब्रहमकमल और हरैई (हरियाली) की छुपकी को भी टोपी के ऊपर लगाते हैं। टोपी सर्दीव गर्मी दोनों मौसमों के लिए अनुकूलित होने के साथ-साथ प्रतिष्ठा का भी महत्त्वपूर्ण सूचक मानी गई है।

टोपियाँ पहनने का प्रचलन जितना भारत में है उतना पश्चिमी देशों में भी है बल्कि वहाँ टोपियाँ फ़ैशन के तौर पर अधिक पहनी जाती हैं।

कॉटन टोपियाँ यह दुनिया भर में इस्तेमाल की जाने वाली टोपियों की आम किस्म है। ऊन की टोपियाँ जो कि भेड़ के बालों से बनी होती है जो कि बहुत नर्म और लचीली होती है और बहुत गर्म होती हैं, चमड़े की टोपी जानवरों के चमड़े से बनाई जाती हैं और बहुत टिकाऊ होती हैं। पॉलिएस्टर टोपी सबसे ज़्यादा इस्तेमाल की जाने वाली आधुनिक टोपी होती है।

Fedora Cap - इन टोपियों पर छोटे फोल्ड होते हैं और इन टोपियों में रेशमी रिबन भी होता है जो इस कैप को दूसरी कैप से अलग बनाते हैं।

Boater Cap - जैसा कि नाम से ही ज्ञात हो रहा है इन टोपियों में फ्लैट टाप और फ्लैट ब्रिम होता है।

Sun Cap - ये टोपियाँ सिर को अच्छी तरह से कवर करती हैं चेहरे और कंधों को धूप से बचाने के लिए ये इस तरीक़े से डिज़ाईन की गई हैं। लंबाई और ऊँचाई को कई इंच तक बदला जा सकता है।

Baseball Cap - यह कैप सबसे अधिक इस्तेमाल की जाने वाली कैप है इसमें टोपी का अगला भाग लंबा होता है जो चेहरे को ढकता है।

News Boy Cap - यह फ्लैट कैप के समान है और इसे Apple Cap के नाम से भी जाना जाता है। टोपी के मुख्य भाग के साथ संलग्न करने के लिए शीर्ष पर बटन होता है। यह शैली उन्नीसवीं शताब्दी में लोकप्रिय थी और अभी भी अपने फ़ैशन के कारण लोकप्रिय है।

Pork Pie Cap - यह Fedora Cap के जैसे ही होती हैं। इन कैप्स में ब्रोय, पंख और अन्य सजावटी चीज़ें हैं इसलिए ये उच्चतम स्तर के फ़ैशन कैप हैं।

Bobble Cap - इस टोपी के शीर्ष पर एक डिजाईन है। ये फर वाली विभिन्न आकार की टोपियाँ होती हैं।

Beret Cap - ये गोल और सपाट होते हैं जिसे ऊन जैसे कपड़ों से बुना जाता है। इस कैप को समय के साथ एक उच्च फ़ैशन एक्सेसरी के रूप में विकसित किया गया है।

Top Cap - यह फार्मल टोपी होती है यह शीर्ष पर उच्च सिलेंडर आकार में रहता है।

Beanie Cap - इन्हें आम तौर पर ठंड के मौसम के लिए उपयोग किया जाता है। इन कैप्स में सिर को पूरी तरह ढकने की क्षमता होती है।

Mortarboard Caps - ये एकेडमिक ड्रेसिंग के लिए एक आइटम के रूप में उपयोग की जाने वाली कैप है। इसे Square Academic Cap, स्नातक टोपी या आक्सफोर्ड टोपी भी कहते हैं।

Visor Cap - ये स्पोर्टी कैप आम तौर पर गॉल्फ़ या टेनिस खेलने के लिए उपयोग की जाती हैं। ये सूरज से चेहरे की रक्षा करते हैं।इन कैप्स में फिटिंग को समायोजित करने के लिए प्लास्टिक की ज़िप होती है।

Bucket Caps - ये हल्के और हवादार होती हैं जो धूप में दिन बिताने में मदद करती हैं। इन टोपियों में गोल मुकुट होता है और पूर्ण सुरक्षा देने के लिए आँखों की ओर झुके होते हैं।

उपरोक्त टोपियों के अतिरिक्त कुछ और कैप जैसे पनामा, Trapper, Fascinator, Pillbox, Bowler Cap आदि भी पश्चिम देशों में ख़ूब प्रचलित हैं।

इन सभी टोपियों के अतिरिक्त नेपाली टोपी जिसे ढाका टोपी भी कहा जाता है नेपाल में बहुत प्रसिद्ध है। दरअसल जिस कपड़े से यह टोपी बनाई जाती है उसे ढाका कहते हैं इसलिए इस टोपी का नाम ढाका टोपी पड़ा है।

एक और टोपी होती है जिसे बोहरा टोपी कहते हैं। बोहरा की महिलाएँ रिदा पहनती हैं जिसमें महिलाओं का चेहरा नहीं ढका होता है जबकि पुरूष सफ़ेद रंग की टोपी जिसमें सुनहरे रंग की एम्ब्राइडरी होती है पहनते हैं जिसे बोहरा टोपी कहा जाता है।
इसके अलावा ताकियाह टोपी भी होती है जो रंग-बिरंगी छोटी और गोलाकार होती हैं।

टोपियों के अथाह रंग विश्वभर में फैले हुए हैं जिनका संक्षिप्त नाम लेना ही मेरे बस में है इनमें अफ़गानी पकोल टोपी, पश्तुन टोपी, मस्कती टोपी, सुडानी टोपी, तुर्की टोपी, लखनवी दो पल्ली टोपी, शंकु के आकार की टोपी तुर्की भी विशेष महत्व रखती हैं।

टोपियाँ न केवल हमें सर्दी, धूप व बारिश से बचाती हैं बल्कि ये टोपियाँ सामाजिक प्रतिष्ठा का भी परिचायक हैं। भारत देश ही अकेला देश है जहाँ इतनी विविधता है। हर किसी धर्म या समुदाय का अपना अलहदा अंदाज़ है पहनावा धारण करने का उसी सलीक़े में रहना का।

टोपियों की भी अपनी गाथाएँ हैं अपना वजूद है जिनसे सामाजिक प्रतिष्ठा, सम्मान, कर्तव्य, संस्कृति का प्रसार जुड़ा है, अपनी अलग सामुदायिक पहचान, अपनी थाती, अपनी धरोहर बचाने के लिए भी नई पीढ़ियों का टोपी धारण करना सराहनीय है।


लेखन तिथि : 2022
            

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