ज़रूरत पर नहिं शक्ल कभी तुम दिखलाते हो,
ज़रूरत नहिं जब, ज़बरदस्ती नभ घिर आते हो।
जाने क्यों निज बल पर इतना इतराते हो।।
जब प्यासी हो धरा, बूँद-बूँद को तरसाते हो,
खेत-खलिहान जलमग्न, बरसने लग जाते हो।
लगे सूखने नदि, नाले, नौले, फ़सलें, न तरस खाते हो।।
अब चाहिए धूप, तो रोज़ क्यों बरस रहे हो?
घर, घाट, फल, फ़सल बहा फिर हरष रहे हो?
बता ख़ता ऐ घटा! जो जग विनास तुम तरस रहे हो।।
बता ऐ घटा! देखा क्या तूने जो जग पर है घटा?
बता क्या ख़ता बगुले की, जिसने तेरा नाम नित रटा?
क्यों तूने उस पर से अपनी नज़र ली हटा?
घर-आँगन सब ध्वस्त, सड़कें डूबी जनसम्पर्क भी कटा।
शर्म कर ऐ घटा! तू क्या फटा।
अब जन-मानस का तुझसे दिल ही फटा।।
ऐसी भी क्या खुन्दक तुझको जन-मानस से?
जो अविरल ही बरस रहा, सब रहा तू बहा।
जिससे जीवन आस, वही अब मृत्यु-मार्ग महा।।
ऊब गया अब मैं तो तेरी इस बे-मौसम, बे-मतलब बरसा से,
जग-विनास की तेरी बेझा इस मृग-तृषा से।
छोड़ बरसना अनावश्यक, तनिक अनुकम्पा भी दरषा।।
ऐ घटा! जग ज़रूरत को जान, समय पहचान,
छोड़ गरजना, चमकना, फटना, बे-मतलब का बरसना।
छोड़ निर्दोष जगत को डसना औ फिर हँसना।।
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