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अमर राष्ट्र (कविता) Editior's Choice

छोड़ चले, ले तेरी कुटिया,
यह लुटिया-डोरी ले अपनी,
फिर वह पापड़ नहीं बेलने,
फिर वह माला पड़े न जपनी।

यह जाग्रति तेरी तू ले-ले,
मुझको मेरा दे-दे सपना,
तेरे शीतल सिंहासन से
सुखकर सौ युग ज्वाला तपना।

सूली का पथ ही सीखा हूँ,
सुविधा सदा बचाता आया,
मैं बलि-पथ का अंगारा हूँ,
जीवन-ज्वाल जलाता आया।

एक फूँक, मेरा अभिमत है,
फूँक चलूँ जिससे नभ जल थल,
मैं तो हूँ बलि-धारा-पंथी,
फेंक चुका कब का गंगाजल।

इस चढ़ाव पर चढ़ न सकोगे,
इस उतार से जा न सकोगे,
तो तुम मरने का घर ढूँढ़ो,
जीवन-पथ अपना न सकोगे।

श्वेत केश?—भाई होने को—
हैं ये श्वेत पुतलियाँ बाक़ी,
आया था इस घर एकाकी,
जाने दो मुझको एकाकी।

अपना कृपा-दान एकत्रित
कर लो, उससे जी बहला लें,
युग की होली माँग रही है,
लाओ उसमें आग लगा दें।

मत बोलो वे रस की बातें,
रस उसका जिसकी तरुणाई,
रस उसका जिसने सिर सौंपा,
आगी लगा भभूत रमायी।

जिस रस में कीड़े पड़ते हों,
उस रस पर विष हँस-हँस डालो;
आओ गले लगो, ऐ साजन!
रेतो तीर, कमान सँभालो।

हाय, राष्ट्र-मंदिर में जाकर,
तुमने पत्थर का प्रभु खोजा!
लगे माँगने जाकर रक्षा
और स्वर्ण-रूपे का बोझा?

मैं यह चला पत्थरों पर चढ़,
मेरा दिलबर वहीं मिलेगा,
फूँक जला दें सेना-चाँदी,
तभी क्रांति का सुमन खिलेगा।

चट्टानें चिंघाड़ें हँस-हँस,
सागर गरजे मस्ताना-सा,
प्रलय राग अपना भी उसमें,
गूँथ चलें ताना-बाना-सा।

बहुत हुई यह आँख-मिचौनी,
तुम्हें मुबारक यह वैतरनी,
मैं साँसों के डाँड़ उठाकर,
पार चला, लेकर युग-तरनी।

मेरी आँखें, मातृ-भूमि से
नक्षत्रों तक, खींचें रेखा,
मेरी पलक-पलक पर गिरता
जग के उथल-पुथल का लेखा!

मैं पहला पत्थर मंदिर का,
अनजाना पथ जान रहा हूँ,
गडूँ नींव में, अपने कंधों पर
मंदिर अनुमान रहा हूँ।

मरण और सपनों में
होती है मेरे घर होड़ा-होड़ी,
किसकी यह मरज़ी-नामरज़ी,
किसकी यह कौड़ी-दो कौड़ी?

अमर राष्ट्र, उदंड राष्ट्र, उन्मुक्त राष्ट्र!
यह मेरी बोली
यह 'सुधार' 'समझौतों' वाली
मुझको भाती नहीं ठठोली।

मैं न सहूँगा-मुकुट और
सिंहासन ने वह मूँछ मरोरी,
जाने दे, सिर लेकर, मुझको
ले सँभाल यह लोटा-डोरी!


            

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