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अंतर्द्वंद (लघुकथा)

लंबी प्रतीक्षा के बाद आख़िर वो दिन आ ही गया और उसने सुंदर सी गोल मटोल बेटी को जन्मदिन दिया। सब बहुत ख़ुश थे। यहाँ तक की उसकी सास तो जैसे ख़ुशी से उड़ रही थी। बड़े गर्व से वह अपनी बहू का बखान करते नहीं थक रही थीं, कल तक उनकी शारीरिक परेशानियों के चलते बोझ लगती ज़िंदगी में जैसे पोती ने आकर उम्मीदों की नई किरण बिखेर दी है।

मगर वो उतनी ख़ुश नहीं थी, क्योंकि इतनी लंबी प्रतीक्षा के बाद उसे बेटे की लालसा थी।
ये बातें उसकी सास तक भी पहुँच रही थीं, थोड़े दिन तक तो वो शांत रही और ख़ुद को पोती में उलझाए रखकर बात को टालती रहीं।
मगर कब तक बचती या बचातीं, आख़िर उनकी पोती का सवाल था, तब उन आख़िरकार एक दिन अपने बेटे बहू को पास बैठाया और बड़े प्यार से बहू से बोली-बेटी की माँ क्या माँ नहीं होती?
वो इसके लिए तैयार न थी, इसलिए हड़बड़ा गई- नहीं माँ, ऐसा मैंने कब कहा?
उसकी सास ने बिना किसी भूमिका के कहा- देखो बहू, मैं माँ हूँ, बेटे की भी और बेटी की भी। पहली बार देख रही हूँ कि कोई औरत माँ बनकर सिर्फ़ इसलिए ख़ुश नहीं है कि वो बेटी की माँ बनी है। जबकि मैं तुम्हारी सास हूँ फिर भी ख़ुश हूँ ,जानती हो क्यों? वो इसलिए कि तुम दोनों भी माँ बाप बन गए और मैं दादी। बेटा और बेटी ईश्वर की देन है।
एक बार सोचकर देखो यदि तुम्हारी माँ ने तुम्हें जन्म ही न दिया होता तो? ये भी सोचो कि यदि तुम्हें संतान ही न होता तो तुम्हें कैसा लगता? हर सुख सुविधा के बाद भी तुम कभी ख़ुश रहती, शायद नहीं यक़ीनन कभी नहीं।
रही बेटी की बात तो भूल जाओ कि उसे तुमनें जन्म दिया, बल्कि ये सोचो कि उसके जन्म के साथ ही तुम पूर्ण औरत बनी हो, उसके जन्म से ही तुम माँ होने का गौरव पा सकी हो।
अब रही उस नन्हीं जान की बात तो वो मेरी पोती भी है, मैं उसकी परवरिश कर सकती हूँ, पढ़ा लिखा कर उसके हाथ पीले करने से पहले मैं दुनिया नहीं छोड़ूँगी, मगर आज के बाद तुम मेरी बहू होने के अधिकार ज़रूर खो दोगी।

वो दोनों किंकर्तव्यविमूढ़ सब चुपचाप सुन रहे थे, उसका पति मन ही मन ख़ुश हो रहा था कि माँ ने कितनी साफ़गोई से सब कुछ समझा दिया और चुपचाप कमरे से बाहर चला गया। वो आँसू बहाते हुए अपनी सासूँ माँ से लिपट गई।
उसके मन का अंतर्द्वंद मिट चुका था। उसकी सास उसके सिर पर हाथ फेरकर उसे माँ की ममता का आभास सौंप रही थी।


लेखन तिथि : 23 अगस्त, 2021
            

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