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अंतहीन आकृतियाँ (कविता) Editior's Choice

अंधेरी रात में,
घने जंगल से गुज़रता हुआ;
एक शराबी को,
गीदड़ों के गुर्राने की आवाज़;
भयानक हिलती हुई आकृति;
औ झिंगुरों की कर्णभेदी स्वर;
सुनाई देता है जो
उसके नशे को पीते हुए,
डाल देता भुलावे में।
भूतिया पुलिया से गुज़रते हुए,
नीचे पानी के बहाव पर,
किसी शव की खुली और रक्तरंजित आँखें
और वीभत्स रूप!
डूबते हुए मृत्यु की अनचाही स्वीकृति,
पास की झाड़ी से सरसराहट की आवाज़,
चीर देती हृदय का सीना।
एक स्वप्र,
जिसे सदियों पूर्व कभी देखा था।
मृत्यु को समीप पा,
हो गया जीवंत।
एकाएक सारे घटनाक्रम,
खटखटाने लगे मस्तिष्क का कपाट।
पहाड़ी के पीछे से वेदना का तीक्ष्ण सर ,
आहत करता हृदयगति को;
औ फेंक देता गहरे अंधेरी खाई में।
एक चेहरा,
जो चिर परिचित;
जिस पर लिखा था महाकाव्य!
आँखों को फाड़े अट्टहास कर रहा।
इनसे वह छिपना चाहता है;
किसी सर्प के बिल में।
या किसी कठफोड़वे के खोह में,
जहाँ वह इस दुनिया को छोड़
दूसरी में जा सके।
अधूरे स्वप्न को पूर्ण करने के लिए।
और
शांत करने के लिए;
अपनी प्रतिशोध की अग्नि को,
पूर्णतया; एकांत।


रचनाकार : प्रवीन 'पथिक'
  • विषय :
लेखन तिथि : 26 अक्टूबर, 2022
            

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