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अंतर्विरोध (कविता) Editior's Choice

हृदय के पिछले आँगन से,
उठा था एक गुब्बार।
जो मानस के पन्नों को,
उड़ा के ले गया था सुदूर निर्जन वन में।
जहाँ अज्ञात चिंता, तड़प और अंतर्द्वंद का,
काला साया, घुमड़ते मेघों-सा;
बरसा था बड़ी जोरो से,
और एक दुनिया बह निकली थी।
एक धुँधली आकृति ने प्रश्न किया;
वहीं सागर के तट पर;
और माँगा अपना अधिकार।
चाणक्य ने अपने तर्कशास्त्र फेंक दिए,
अतीत के गहरे पानी में।
और हो गए मौन, समाधिस्थ।
जीवन की गोधूली में,
दिखा एक दिवास्वप्न।
जो पूछ रहा था अंतर्संबंधों के बारे में,
भटके के हुए पथिक की भाँति,
नहीं मिल रहा कोई पथ‌।
या खो गया जीवन के पुराने पन्नों में,
या कहूँ कि–
था ही नहीं कोई पथ जीवन में।


रचनाकार : प्रवीन 'पथिक'
  • विषय :
लेखन तिथि : 4 अप्रैल, 2022
            

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