बेहया के फूल (कविता)

हम गलीच में पैदा हुए
गलीच में ही बढ़े और खिले भी
यानी
सबसे पुराने और सड़ चुके पानी को पिया हमने
उसी में जिया हमने

हमारे आस-पास इतनी दुर्गंध थी कि
हम फूल होते हुए भी महक न सके
मगर खिलते रहे

जाने किन कोशिकाओं से बना था मन
जाने कितना जीवट था हमारे पुरखों का रक्त
कि हमें बार-बार तोड़ा गया
उखाड़ा गया, मरोड़ा गया
और बार-बार फेंक दिया गया
इस गलीच से उस गलीच

मगर ये हम थे कि हर बार उग आए
हर बार खिल आए

हम फूल होते हुए भी महक न सके तो क्या
हममें एक ज़िद थी, दृश्य को सुंदर बनाने की
और हमारे हर बार खिल आने का यही एक रहस्य था

हम किसी जूड़े में नहीं टाँके गए
हम किसी हार में नहीं गूँथे गए
हम किसी वेदी पर नहीं रक्खे गए
यहाँ तक कि हम फूलों में गिने भी नहीं गए

जबकि हम हमेशा से यहीं के थे
यहीं, इसी ग्रह, इसी धरती के।


रचनाकार : विहाग वैभव
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