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भारत का वह अमर सितारा (कविता) Editior's Choice

भारत के उस अमर व्योम पर,
चमका एक सितारा था।
अंग्रेजों के सम्मुख झुकना,
जिसको नहीं गँवारा था।

पराधीनता की रातों में,
जन्मा चन्द्र निराला था।
स्वतंत्रता की रणभूमि का,
विकट शेर मतवाला था।

इंक़लाब की ज्वाला था वो,
और क्रांति का उद्घोष।
आज़ादी के महापर्व का,
जलता हुआ एक आक्रोश।

भारत के इस अमर लाल ने,
जब जब भी हुँकारा था।
अंग्रेजों की उसी हुकूमत,
को जीते जी मारा था।

भारत के उस अमर व्योम पर,
चमका एक सितारा था।
अंग्रेजों के सम्मुख झुकना,
जिसको नहीं गँवारा था।

भेष बदलने में था माहिर,
हर निर्णय ही अपना था।
बना सके आज़ाद को बंदी,
हर गोरे का सपना था।

तन जनेऊ और घड़ी हाथ में,
रखता था मूछों पर ताव।
तान निशाने पर वह पिस्टल,
अंग्रेजों पर रखता दाँव।

सदा रहूँ आज़ाद यहाँ मैं,
एकमात्र ही नारा था।
उसके देशप्रेम के सम्मुख,
हर अंग्रेज ही हारा था।

भारत के उस अमर व्योम पर,
चमका एक सितारा था।
अंग्रेजों के सम्मुख झुकना,
जिसको नहीं गँवारा था।

स्वतंत्रता को पिता बताया,
और जेल को निज आवास।
स्वयं को ही आज़ाद बताया,
नहीं ग़ुलामी आई रास।

अल्फ्रेड पार्क में जब गोरों ने,
उनको जाकर घेरा था।
उनके जीवन का अंतिम ही,
शायद वही सवेरा था।

जीवन के अंतिम पल में वह,
ख़ुद से डूबा तारा था।
रहने को आज़ाद सदा ही,
ख़ुद से ख़ुद को मारा था।

भारत के उस अमर व्योम पर,
चमका एक सितारा था।
अंग्रेजों के सम्मुख झुकना,
जिसको नहीं गँवारा था।


लेखन तिथि : जुलाई, 2022
            

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