सीमित ना हो दायरा उर के द्वार का,
प्रकृति भी देती परिचय दाता उदार का।
यूँ ही नहीं होता सृजन उपलब्धि के आधार का,
छूपी हुई नींव में आरंभ है शिखर के सत्कार का।
दसो दिशाओं को समेटे व्योम विस्तारित है हुआ,
जग का सारा खार ले, सागर समर्थ उदारित है हुआ।
धूप ताप शीत सब सह-सह नग शृंगारित है हुआ,
अश्म रज भी तन्यता से कुलिश रूप निखारित है हुआ।
प्रचण्ड होकर भी प्राण वायु साँसों का आधार है,
रौद्र रूप होकर भी रवि सृष्टि के सृजनकार है।
नीर होकर गहन अथाह, सरल निराकार है,
प्रकृति का पर्याय ही कण-कण में परोपकार है।
महानता के मूल का सूक्ष्म, शून्य का विस्तार है,
बिंदु-बिंदु कमतर नहीं विशालता के शिल्पकार है।
व्यक्तिव के विकास का सहजता ही चरम उद्गार है,
सब समर्थ होकर ना अहंकार है वही तो साकार है।
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