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बोरिया-बिस्तर (लघुकथा)

वह शहर में नया-नया आया था। मैंने यह समझकर घर में शरण दे दी कि वह मित्र का लड़का है। जॉब तलाशने पर उसे इस शहर में जॉब मिल गई। पर उसकी दिनचर्या सामान्य नहीं थी। बहुत देर से ऑफ़िस से घर लौटना वह भी नशे में धुत होकर। भोर होने के बाद देर तक सोना। मैंने पाया कि मेरी पत्नी कुछ सशंकित रहने लगी थी और उसकी शंका निर्मूल नहीं थी। मुझे यह अहसास होने लगा था कि बच्चों पर इन सब बातों का असर प्रतिकूल पड़ेगा। मैंने सब्र रखा सोचा ठीक वक्त आने पर मैं उससे कहूँगा।

ऑफ़िस के कार्य में घोर अनियमितताओं की वजह से उसे एक दो बार वार्निंग देकर छोड़ दिया गया। लेकिन वही ढाक के बस तीन पात। फलत: उसे नौकरी से निकाल दिया गया। वह अपना बोरिया बिस्तर समेटते हुए बोला "अंकल! मैं इस शहर में एडजस्ट नहीं हो पा रहा हूँ। अब मैं हैदराबाद में शिफ्ट होऊँगा।"

उस समय मुझे और मेरी पत्नी को ऐसा लगा जैसे किसी दुरात्मा से छुटकारा मिल गया हो और हम लोग शांति का बिगुल बजाते वहाँ से हट गए।


लेखन तिथि : 13 अगस्त, 2022
            

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