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चंद्रोदय (कविता) Editior's Choice

जाऊँगा, चंद्रोदय हो लेने दो—
वन में नदी को ऐसे अकेले छोड़कर
कैसे चला जाऊँ?
जाऊँगा, पर चंद्रोदय हो लेने दो।
चंद्रोदय होते ही देखना—
बाँसों के पीछे से टिटहरी बोलेगी
जिसे सुन
पगडंडियाँ थोड़ी-सी निर्भय हो
जंगल में भटके पशुओं-सी
चलने लगेंगी बस्तियों की ओर।
सरपतों में दुबके ख़रगोशों को लगेगा—
टिटहरी ही सही
पर अब वे अकेले नहीं हैं,
इन सरपतों पर विश्वास किया जा सकता है।
हवाएँ भी
पेड़ों से कूदकर नदी में
अबाबीलों-सी पंख गीले कर
टीलों के कानों में बजने लगेंगी।

अभी यह जो निरभ्रता का सन्नाटा है।
जिसमें पेड़ क्या
जंगल तक आसन्न है
चंद्रोदय होते ही देखना—
तारों को भी नदी में उतरने में संकोच नहीं होगा
क्योंकि मछलियाँ
गहरे जल की चट्टानों में चली गई होंगी
और आकाश दृष्टिसंपन्न हो जाएगा।

इस पार से उस पार तक
अँधेरे में
किसी नाव के चप्पुओं की आवाज़ सुनाई पड़ना ही
काफ़ी नहीं होता
बल्कि ज़रूरी होता है दिखना भी, कि
पेड़, पेड़ ही हैं।
और दूरियाँ अभी भी जंगलों के पार जा रही हैं।
जबकि जंगल
हिंस्र पशु-सा झुका हुआ है नदी पर
और वह कैसी कपिला-सी थरथरा रही है।

नहीं, वन में नदी को ऐसे अकेले छोड़कर
कैसे चला जाऊँ?
चंद्रोदय में
जंगल को पहले वन हो जाने दो
तब जाऊँगा, चला जाऊँगा
पर चंद्रोदय के बाद ही जाऊँगा।


रचनाकार : नरेश मेहता
            

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