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दायित्व (गीत)

है नहीं आसान, घर दायित्व, निज सिर पर उठाना।
सच कहूँ! मुश्किल बहुत दो, वक्त की रोटी चलाना।।

ख़र्च हम करते रहे अब,
तक पिता की ख़ूब दौलत।
पूर्ण सारी हो रही थी,
ज़िंदगी की शान शौकत।
किन्तु! ज़िम्मेदारियों ने,
आज की हमपर हुकूमत।
नौकरी से भी नहीं अब,
पूर्ण होती है ज़रूरत।

हो गया आभास सब कुछ, जब पड़ा ख़ुद ही कमाना।
सच कहूँ! मुश्किल बहुत, दो वक्त की रोटी चलाना।।

खो गई वो मौज मस्ती,
शौक़ सब छूटे हमारे।
है दुखी अन्तःकरण सब,
स्वप्न भी टूटे हमारे।
ज़िंदगी प्रतिदिन हमारी,
इक कहानी गढ़ रही है।
हर सफ़र हर मोड़ पर दिन,
रात मुश्किल बढ़ रही है।

कार्य में नित व्यस्त रहते, भूलकर हँसना-हँसाना।
सच कहूँ! मुश्किल बहुत, दो वक्त की रोटी चलाना।।

बस यही कुछ लोग कहकर,
सांत्वनाएँ दे रहे हैं।
मंज़िलें उनको मिली हैं,
द्वन्द-दुख जिसने सहे हैं।
किन्तु! मेरा मन व्यथित है,
देखकर बेरोज़गारी।
चढ़ रही घर ख़र्च में अब,
सिर हमारे नित उधारी।

कर रहे संघर्ष! जीवन, पथ सुगम हमको बनाना।
सच कहूँ! मुश्किल बहुत, दो वक्त की रोटी चलाना।।


लेखन तिथि : 10 दिसम्बर, 2021
            

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