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धब्बे (संस्मरण)

मेरी दैवीय (मोटी सी) दैहिक संरचना को देख-देख कर कब मेरी बहन ने मुझे 'गोलू' और गोलू से 'गुल्लड़' की उपाधि से विभूषित कर डाला, मुझे कुछ पता ही नहीं चला। अब तो यह संबोधन उसकी ज़बान और मेरे कानों पर रच-बस ही गया है। मेरी जैकेट को हाथ में ले मुझे दिखाती हुई, कुछ खीझ भरी ज़बान में मुझसे बोली - अरे ओ गुल्लड़! मेरी जैकेट पर यह तेल का धब्बा कहाँ से बसा लाई? और इसी को पहने घूम रही है? मैंने उसकी आँखों में झलकती खीझ के पार झाँकते हुए देखा तो पाया, प्यार का एक पूरा चाँद ही चमक रहा था, अपनी पूरी चाँदनी के साथ। और बस उसकी मोहक चुंबकीय आकर्षण शक्ति के बल पर खिंची हुई जा लिपटी मैं उसके गले से। वो, बस! बस!! हट! हट!! कहती हुई चली गई बाथरूम की ओर। यही तो एक भारी कमी है मुझमें। बस जहाँ प्यार के चाँद की मोहक किरणों का तनिक सा जादू मिला नहीं, और मेरे इस हृत सागर में प्रेम का ज्वार उमड़ा नही। अब जैकेट धुले, ना धुले; मुझे तो निमग्न कर ही गया वह धब्बा प्रेम के गहन सागर में। मैं जहाँ की तहाँ ठहर सी गई जैकेट के धब्बे में। इस धब्बे में छिपी हुई थी खनकती हँसी; जो मुझे गुदगुदाती रहती। खिली हुई थी मुस्कुराहट; जो मेरे कपोलों पर थिरकती रहती। बसी हुई थीं मीठे शब्दों की वे सेवइयां जो मेरे पेट नहीं, आत्मा को तृप्त करतीं रहतीं। अब इस जैकेट से क्या सरोकार! क्योंकि इसमें जो कुछ निहित था वह सब कुछ तो आत्मसात कर ही चुकी थी मेरी अंतरात्मा।

कल की सी ही तो बात लगती है, जैसे कल ही हुआ है आपसे मिलना। ट्रेन अपनी गति से चली जा रही थी और मंज़िल मेरी क़रीब और क़रीब आती जा रही थी। खिड़की से देख रही थी पेड़ों का तेज़ी से गुज़रना। हरिताभ पर्वतों का त्वरित गति से भागते हुए चले जाना। उनमें बसी हुई गहरी नीलिमा, जिनके ऊपर रूई के फाहों से बादलों का मँडराना। जितनी तेजी से ये ऐंद्रजालिक दृश्य भागते हुए दिख रहे थे, उतनी ही तेज़ी से अतीत की यादें भी पलकों के सामने से गुज़र रही थीं। याद आ रहा है आपका नाम मंच से पुकारा जाना। तब मुझे पहली बार पता चला - आप हैं डॉ. प्रभा पंत। मंच पर महीयसी महादेवी वर्मा जी पर आपका लेख पढ़ा जाना।

कैसे भूल सकती हूँ उस दिवस के उन पलों को। आलेख पढ़ते हुए बीच में 'किंतु' शब्द का आपके द्वारा आलाप सा लिया जाना। आपके 'किंतु' का आलाप ही मेरे लिए संगीत के आलाप सा अनुभूत हो रहा था। झंकृत हो उठी थी मेरी रूह यह सुनकर। आप आकर मेरे बगल वाली ही कुर्सी पर बैठ गई थीं। मैं आपको मासूम बच्ची के समान अपलक निहारती रही पूरे कार्यक्रम में।

लगता है स्टेशन आ रहा है, तभी चहल पहल हो रही है। गाड़ी रुकते रुकते उतर गई मैं यादों को स्वयं के मन के कोष में समेटकर। आपका ड्राइवर लेने आया था मुझे। लेकर चल दिया और मैं सोचती रही कि पहली बार आपके घर आ रही हूँ आपसे मिलने। अभिवादन कैसे करूँगी मैं? नमस्ते करूँ या अमरबेल सी लिपट जाऊँ आपसे? देखते-देखते ही घर आ गया। आप मेरा हाथ थाम कर अंदर लेकर गईं। देर शाम को मैंने आपसे कहा कि आपके पैरों की मालिश कर दूँ? इस बहाने बातें भी करते रहेंगे। मैं आपके पैर के तलवों को अपनी गोद में रखकर धीमे-धीमे अंगुलियों की मालिश करती रही। मालिश आपको लग रही होगी। मुझे तो लगा कि जैसे मैं सितार के सारे स्वर एक साथ बजा रही हूँ और यह धीमा धीमा संगीत मुझे स्वरों की गलियों की अनोखी सैर करा रहा है। आपको भी अच्छा लगा था मेरा यह मालिश करना। फिर आपने अपने हाथों से मुझे खाना खिलाया और दुलारा भी था।

जब वापस ट्रेन में मैं बैठी तब जैकेट पर पड़े तेल के धब्बे पर आपका ध्यान गया और मैं मुस्कुरा उठी। तेजी से अतीत के गलियारे को पार कर आप से लिपट कर वापस आ गई वर्तमान में। कहते हैं शरीर की सारी नशें पैरों में होती हैं। तो हृदय की भी होती ही होंगी और हृदय जुड़ा होता है आत्मा से। सुनती आई हूँ कि आत्मा के रिश्ते जन्म-जन्म चलते हैं। क्या पता आपका और मेरा कोई रिश्ता रहा हो। तभी मुझे आप अपनी लगती हो। पाठक, दोस्त, माँ, बेटी कोई भी नाम दे दो इस अपनेपन को।

कई दिनों तक जैकेट को उल्टी साइड से पहनती रही ताकि आपकी यादें गुदगुदाती रहें मुझे। इस अंतर की आवाज़ को क्या कहकर समझा पाती बहन को?

आज जैकेट धुल गई पर मेरे हाथों की लकीरों में उन पद चिन्हों को अंकित करके। फिर से वे ही दिन आएँ। फिर से जैकेट पर वे ही निशान बनें यही अभिलाषा लिए हुए चल दी मैं कमरे में पढ़ने के लिए एक बार बालकनी में धुलकर सूखने को टँगी हुई जैकेट पर दृष्टि डालते हुए।

जैकेट पर लगे हुए धब्बे तो धुल कर, सूख कर मिट जाएँगे लेकिन मेरे हृदय पर अंकित हुए पद चिन्ह? क्या वे कभी मिट पाएँगे? नहीं कदापि नहीं। कदापि नहीं।


लेखन तिथि : 2021
            

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