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धन्य (लघुकथा)

प्रातिभ की सर्विस लगे जुमा-जुमा एक साल बीता था कि उसके माता पिता को उसके विवाह की चिंता सताने लगी। वे अपनी जात बिरादरी में लड़की खोज रहे थे। जो सर्वगुण सम्पन्न हो। कार्यकुशल हो। जैसा उसका अपने माता-पिता के प्रति आदर सम्मान है वैसा ही सास ससुर के प्रति भी हो।

मई का महीना था। वे पलंग पर लेटे हुए इसी उधेड़ बुन में लगे थे। समीप ही पत्नी चारपाई पर लेटी थी।
बाहर चिलचिलाती धूप थी। इसीलिए सड़क कम चल रही थी। इक्का-दुक्का लोग ही नज़र आ रहे थे। तभी किसी ने उनका दरवाज़ा खटखटाया। रहस्यमय अंदाज़ में उनकी आँखें सिकुड़ गईं कि आख़िर कौन होगा?

जब उन्होंने दरवाज़ा खोला तो सामने प्रातिभ नई नवेली दुल्हन के साथ खड़ा था। उन्हें देखते ही दोनो उनके क़दमों मे झुक गए।
प्रातिभ बोला- बाबा हमने कोर्ट मैरिज कर ली है।

वे ठगे से देखते रहे। कोर्ट मैरिज यानि अंतर्जातीय विवाह।

एक सप्ताह, फिर एक पक्ष बीता। जिस लड़की के सपने वे जात बिरादरी में देख रहे थे, वो उसकी साक्षात मूर्ति थी। सर्वगुण सम्पन्न। आदर सम्मान से लबरेज़। पर अंतर्जातीय विवाह का मलाल उनके सिद्धांत पर आघात कर रहा था। इन सबसे उबरने के लिए उन्होंने बहू को बेटी के रूप में स्वीकार कर लिया। उन्होंने पाया कि उनका बुढ़ापा सँवर गया है।
ऐसे बहू बेटे पाकर वे धन्य थे।


लेखन तिथि : 2019
            

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