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धरती का शृंगार मिटा है (कविता) Editior's Choice

धधक उठी है ज्वालित धरती,
जल थल अम्बर धधक उठा है।
अंगारों की विष बूँदों से,
प्रणय काल भी भभक उठा है।

सूख गए हैं तृण-तृण सारे,
दिग दिगंत बेहाल हुए हैं।
सूखे वृक्ष, धरा सूखी है,
पुष्प स्वयं के काल हुए हैं।

मानव का निज ही दृष्टि से,
कर्तव्यों का सार कटा है।
आज कलम ने यही लिखा है,
धरती का शृंगार मिटा है।

सरिताएँ भी सूख गई हैं,
मानव के दोहन के आगे।
स्वयं कूप और सरिताएँ भी
मेघों से जल को हैं माँगें।

तरसे सूखे बदन सभी के,
भूखे पेट गुहार लगाते।
गर्मी की तृष्णा के आगे,
सबके सिर भी झुक हैं जाते।

इस प्रचण्ड विध्वंश के आगे,
मानव का विश्वास घटा है।
आज कलम ने यही लिखा है,
धरती का शृंगार मिटा है।


लेखन तिथि : 5 अप्रैल, 2024
            

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