धरे रहे सब ख़्वाब,
आँखें बोझिल थी।
आसूँ की सौग़ात,
सावन को भी मात,
हाथों में नहीं हाथ,
छूटा स्नेह का साथ,
पर मधुर रहा बोल,
शायद कोयल थी।
काग़ज़ के हर शब्द,
हृदय ने किए ज़ब्त,
प्रेम वेम की ख़ब्त,
उतरी सिर से थी,
सुने जब वो अपशब्द,
अँखियाँ सजल थी।
सच्ची थी साए की धूप,
उपेक्षा से मुरझाया रूप,
दूरी के शब्द होते कुरूप,
सूख गया स्नेह कूप,
अधरों पे हौसला रहा,
वृत्ति निश्चल थी।
धरे रहे सब ख़्वाब,
आँखें बोझिल थी।
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