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धरती उगल रही है आग (कविता)

सूख गए हैं ताल तलैया
उजड़े पड़े हैं मनोरम बाग़
पशु पक्षी तड़प रहे हैं
धरती उगल रही है आग।

पछुआ तन को जला रही है
झुलसा चेहरा जैसे कोई काग
अठखेलियाँ करती गर्म रेत पथिक से
धरती उगल रही है आग।

सूरज बरसा रहा है लावा
मेघ भी गए क्षितिज से भाग
झोंक दिया हो भट्टी में जैसे
धरती उगल रही है आग।

सब की उम्मीद थी बरखा रानी
सूने आकाश ने जिस पर फेरा पानी
खेतों में पड़ गई दरारें
मुँह से निकल रही है झाग
तपने लगा है मन भी अब तो
धरती उगल रही है आग।

मंथन का है दौर जारी
सब के मुख पर पर्यावरण संरक्षण का राग
हर साल गोष्ठियों का मुख्य विषय बन जाता
धरती उगल रही है आग।

आओ मिलकर प्रकृति बचाएँ
हाथों हाथ वृक्ष लगाएँ
मानव तेरी चेतना जाए अब तो जाग
क्यों मौन साधे खड़ा है तू
धरती उगल रही है आग।


रचनाकार : आशीष कुमार
लेखन तिथि : 29 अप्रैल, 2022
            

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