धूमिल पड़ गई वो छाया!
कभी ख़ुशियाँ थी फैलाती;
फूलों-सा थी महकाती;
नीरव करके जीवन को,
मिट गई कभी थी साया।
धूमिल पड़ गई वो छाया!
सूना-सूना जीवन है;
मधु लुट चुका मधुबन है;
लगता है जी को ऐसे,
न था, न बसंत कभी आया।
धूमिल पड़ गई वो छाया!
न आती कभी ही यादें;
ख़ुशी औ ग़म की रातें;
हाँ! रातों के सपनों में,
ना ही मैं उसको पाया।
धूमिल पड़ गई वो छाया!
हुआ शांत चित्त अपना;
विस्मृत हुआ जो सपना;
पहले ख़्वाहिश थी जिसकी,
अब एकाकीपन ही भाया।
धूमिल पड़ गई वो छाया!
लगता वो एक सपना था;
ना ही कोई अपना था;
सपनों के ही क़िस्से में,
मै था ख़ुद को बहकाया।
धूमिल पड़ गई वो छाया!
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