गुरु एक थे और था एक चेला,
चले घूमने पास में था न धेला।
चले चलते-चलते मिली एक नगरी,
चमाचम थी सड़कें चमाचम थी डगरी।
मिली एक ग्वालिन धरे शीश गगरी,
गुरु ने कहा तेज़ ग्वालिन न भग री।
बता कौन नगरी, बता कौन राजा,
कि जिसके सुयश का यहाँ बजता बाजा।
कहा बढ़के ग्वालिन ने महाराज पंडित,
पधारे भले हो यहाँ आज पंडित।
यह अँधेर नगरी है अनबूझ राजा,
टके सेर भाजी, टके सेर खाजा।
गुरु ने कहा-जान देना नहीं है,
मुसीबत मुझे मोल लेना नहीं है।
न जाने की अँधेर हो कौन छन में?
यहाँ ठीक रहना समझता न मन में।
गुरु ने कहा किंतु चेला न माना,
गुरु को विवश हो पड़ा लौट जाना।
गुरुजी गए, रह गया किंतु चेला,
यही सोचता हूँगा मोटा अकेला।
चला हाट को देखने आज चेला,
तो देखा वहाँ पर अजब रेल-पेला।
टके सेर हल्दी, टके सेर जीरा,
टके सेर ककड़ी टके सेर खीरा।
टके सेर मिलती थी रबड़ी मलाई,
बहुत रोज़ उसने मलाई उड़ाई।
सुनो और आगे का सिर हाल ताज़ा,
थी अँधेर नगरी, था अनबूझ राजा।
बरसता था पानी, चमकती थी बिजली,
थी बरसात आई, दमकती थी बिजली।
गरजते थे बादल, झमकती थी बिजली,
थी बरसात गहरी, धमकती थी बिजली।
गिरी राज्य की एक दीवार भारी,
जहाँ राजा पहुँचे तुरत ले सवारी।
झपट संतरी को डपटकर बुलाया,
गिरी क्यों यह दीवार, किसने गिराया?
कहा संतरी ने-महाराज साहब,
न इसमें ख़ता मेरी, ना मेरा करतब!
यह दीवार कमज़ोर पहले बनी थी,
इसी से गिरी, यह न मोटी घनी थी।
ख़ता कारीगर की महाराज साहब,
न इसमें ख़ता मेरी, या मेरा करतब!
बुलाया गया, कारीगर झट वहाँ पर,
बिठाया गया, कारीगर झट वहाँ पर।
कहा राजा ने-कारीगर को सज़ा दो,
ख़ता इसकी है आज इसको कज़ा दो।
कहा कारीगर ने, ज़रा की न देरी,
महाराज! इसमें ख़ता कुछ न मेरी।
यह भिश्ती की ग़लती यह उसकी शरारत,
किया गारा गीला उसी की यह ग़फ़लत।
कहा राजा ने-जल्द भिश्ती बुलाओ,
पकड़कर उसे जल्द फाँसी चढ़ाओ।
चला आया भिश्ती, हुई कुछ न देरी,
कहा उसने-इसमें ख़ता कुछ न मेरी।
यह ग़लती है जिसने मशक़ को बनाया,
कि ज़्यादा ही जिसमें था पानी समाया।
मशकवाला आया, हुई कुछ न देरी,
कहा उसने इसमें ख़ता कुछ न मेरी।
यह मंत्री की ग़लती, है मंत्री की ग़फ़लत,
उन्हीं की शरारत, उन्हीं की है हिकमत।
बड़े जानवर का था चमड़ा दिलाया,
चुराया न चमड़ा मशक को बनाया।
बड़ी है मशक ख़ूब भरता है पानी,
ये ग़लती न मेरी, यह ग़लती बिरानी।
है मंत्री की ग़लती तो मंत्री को लाओ,
हुआ हुक्म मंत्री को फाँसी चढ़ाओ।
चले मंत्री को लेके जल्लाद फ़ौरन,
चढाने को फाँसी उसी दम उसी क्षण।
मगर मंत्री था इतना दुबला दिखाता,
न गर्दन में फाँसी का फंदा था आता।
कहा राजा ने जिसकी मोटी हो गर्दन,
पकड़कर उसे फाँसी दो तुम इसी क्षण।
चले संतरी ढूँढ़ने मोटी गर्दन,
मिला चेला खाता था हलुआ दनादन।
कहा संतरी ने चलें आप फ़ौरन,
महाराज ने भेजा न्यौता इसी क्षण।
बहुत मन में ख़ुश हो चला आज चेला,
कहा आज न्यौता छकूँगा अकेला!!
मगर आके पहुँचा तो देखा झमेला,
वहाँ तो जुड़ा था अजब एक मेला।
यह मोटी है गर्दन, इसे तुम बढ़ाओ,
कहा राजा ने इसको फाँसी चढ़ाओ!
कहा चेले ने-कुछ ख़ता तो बताओ,
कहा राजा ने—‘चुप’ न बकबक मचाओ।
मगर था न बुद्ध—था चालाक चेला,
मचाया बड़ा ही वहीं पर झमेला!!
कहा पहले गुरु जी के दर्शन कराओ,
मुझे बाद में चाहे फाँसी चढ़ाओ।
गुरुजी बुलाए गए झट वहाँ पर,
कि रोता था चेला खड़ा था जहाँ पर।
गुरु जी ने चेले को आकर बुलाया,
तुरत कान में मंत्र कुछ गुनगुनाया।
झगड़ने लगे फिर गुरु और चेला,
मचा उनमें धक्का रेल-पेला।
गुरु ने कहा—फाँसी पर मैं चढ़ूँगा,
कहा चेले ने—फाँसी पर मैं मरूँगा।
हटाए न हटते अड़े ऐसे दोनों,
छुटाए न छुटते लड़े ऐसे दोनों।
बढ़े राजा फ़ौरन कहा बात क्या है?
गुरु ने बताया करामात क्या है।
चढ़ेगा जो फाँसी महूरत है ऐसी,
न ऐसी महूरत बनी बढ़िया जैसी।
वह राजा नहीं, चक्रवर्ती बनेगा,
यह संसार का छत्र उस पर तनेगा।
कहा राजा ने बात सच गर यही,
गुरु का कथन, झूठ होता नहीं है।
कहा राजा ने फाँसी पर मैं चढ़ूँगा,
इसी दम फाँसी पर मैं ही टँगूँगा।
चढ़ा फाँसी राजा बजा ख़ूब बाजा,
प्रजा ख़ुश हुई जब मरा मूर्ख़ राजा।
बजा ख़ूब घर-घर बधाई का बाजा,
थी अँधेर नगरी, था अनबूझ राजा।
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