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हे जगत जननी! तुझे प्रणाम (कविता)

गोद में बालक है, कर में बालटी,
या सर में डलिया खाद गोबर,
या है गट्ठा लकड़िया या घास भारी,
सर पे इतना बोझ, उसके रोज़ है।
पर न कम चेहरे का उसके ओज है।।

तन तपा जाता हो तगडी़ धूप में,
कंपकंपाता तन कड़कती ठण्ड में,
या भीगता जाता रहा बरसात में,
सर पे इतना बोझ उसके रोज़ है।
पर न कम चेहरे का उसके ओज है।।

उम्र ढलती जा रही है दिन व दिन,
शक्ति घटती जा रही है दिन व दिन,
बोझ कम होता न, बढ़ता जा रहा है,
सर पे इतना बोझ उसके रोज़ है।
पर न कम चेहरे का उसके ओज है।।

आगे पथ पथरीला, पीछे वन घना,
करे भी तो करे कैसे वह मना,
नारी सर बस बोझ हित मानो बना,
सर पे इतना बोझ उसके रोज़ है।
पर न कम चेहरे का उसके ओज है।।

दुध मुँहे बच्चे हैं घर, गोठ में गउ-भैंस भी हैं,
घर हो पति, परदेश या कहीं और है, ध्यान रखना,
सबकी सुननी है, सभी को है मनाना,
सर पे इतना बोझ उसके रोज़ है।
पर न कम चेहरे का उसके ओज है।।

फिर भला स्त्री को अबला क्यों कहा है?
क्या अभी बाकी रहा ढ़ोना उसे कोइ बोझ है?
चल, अचल, हर जीव, जड़ को सहन करती,
सर पे इतना बोझ उसके रोज़ है।
पर न कम चेहरे का उसके ओज है।।

कब गया बचपन व कब बीती जवानी,
सर पे लकड़ी, घास या फिर कभी पानी,
उसपे भी माँ-बाप, पति, सास-ससुर ने भौंह तानी,
सर पे इतना बोझ उसके रोज़ है।
पर न कम चेहरे का उसके ओज है।।

अबला नहीं, नारी जगत में सकल बल बलवान है,
पी के पय पर्वत उठाया जिसके प्रभु हनुमान है,
क्षमा कारी, धैर्यधारी, ममतामयी गुणवान है,
सर पे इतना बोझ उसके रोज़ है।
हे जगत जननी! तुझे प्रणाम मम हर रोज़ है।।


लेखन तिथि : 2021
            

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