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हे मेरी तुम! (कविता) Editior's Choice

हे मेरी तुम!
आज धूप जैसे ही आई
और दुपट्टा
उसने मेरी छत पर रक्खा
मैंने समझा तुम आई हो
दौड़ा मैं तुमसे मिलने को
लेकिन मैंने तुम्हें न देखा
बार-बार आँखों से खोजा
वही दुपट्टा मैंने देखा
अपनी छत के ऊपर रक्खा।

मैं हताश हूँ,
पत्र भेजता हूँ, तुम उत्तर जल्दी देना :
बतलाओ क्यों तुम आई थीं मुझसे मिलने
आज सबेरे,
और दुपट्टा; रख कर अपना
चली गई हो बिना मिले ही?
क्यों?
आख़िर इसका क्या कारण?


            

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