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जीवन (कविता)

जीवन चक्र निरंतर चलता,
एक-एक दिन घटता जाए।
पैदा होते शिशु कहलाए,
धीरे-धीरे बुज़ुर्गी पाए।

अपना बचपन सच्चा बीता,
मक‌ई रोटी चने का साग।
बस्ता उठाया स्लेट पकड़ी,
तीन मीलों तक जाते भाग।

धमा-चौकड़ी ख़ूब मचाते,
शिक्षक से पिटते क‌ई बार।
फिर भी कोई शिकन नहीं थी,
हम तो ठहरे बेफ़िक्रे यार।

भाई बहन लड़ते झगड़ते,
फिर भी आपस प्रेम अटूट।
ज्यादा शैतानी कर जाते,
माता-पिता भी देते कूट।

बड़े-बड़ों का आदर करते,
चाचा ताऊ सब राम-राम।
ख़ुशियाँ ज़्यादा आमदनी कम,
इंसान करे कब दाम-दाम।

तैयार वस्तुएँ कब मिलती,
चूल्हे बनती रोटी साग।
वृद्ध साईकिल दौड़ लगाते,
मोटापा नहीं कोई राग।

बीत गया सब वक़्त पुराना,
अब नया ज़माना आया है।
मोबाइल सबके हाथ लगा,
अपनी मस्ती में समाया है।

बस लेकर जाती है बच्चे,
तब स्कूल का द्वार खुलता।
मैगी चाऊमीन कलेवा,
प्रत्येक बच्चा पसन्द करता।

खान-पान सब मिलावटी है,
जीवन चूस ख़तम कर जाए।
पुरानी उम्र सौ से ऊपर,
अब साठा पर टें कर जाए।

अंकल आंटी सभी हो ग‌ए,
चाचा बुआ अब कोई नहीं।
देह की मेहनत को भूले,
बिन स्कूटर कहीं जाएँ नहीं।

अध्यापक की डाँट नहीं है,
मात-पिता के लाड़ले अधिक।
उछल कूद सब बन्द हो गई,
मोबाइल खेलें अधिकाधिक।

ख़ुद में सिमट रही है दुनिया,
किसी के पास समय नहीं है।
मोबाइल जब वक़्त बिताए,
कोई वक़्त की कमी नहीं है।

आयु हुई अठारह बीस की,
मोटापे ने घेर लिया है।
बैठे-बैठे जीवन बीते,
पेट बाहर निकाल लिया है।

जीवन चक्र असंतुलित हुआ,
प्रकृति से हो रहे हैं दूर।
दरख़्त छाँव कोई कब बैठें,
एसी बिताए वक़्त भरपूर।

दिखावटी जीवन इन्सान का,
बस शानो-शौकत जुटा रहा।
शांति संतुष्टि नहीं जीवन में,
खोखला जीवन 'श्री' जी रहा।


लेखन तिथि : 30 जुलाई, 2021
            

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