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काश कि बचपना होता (कविता)

एक वह गोली थी
जो बचपन का
हिस्सा हुआ करती थी

एक यह गोली है
जो शासन की बंदूक से
निहत्थे को
छलनी कर देती है
कितना फ़र्क़ है
है ना बचपन और सयाने में
काश कि बचपना होता सयाने में!
कि जैसे खेल रहे थे गोली
गाँवों में!

एक कवि की अल्हड़ता है
बचपना, गाँव, नगर, नागरी
की सरसता है
यह गाँव की कौड़ी है
दिल्ली की दंडी नहीं।


रचनाकार : विनय विश्वा
लेखन तिथि : 31 जनवरी, 2022
            

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