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कानपुर के नाम पाती (कविता) Editior's Choice

कानपुर! आह! आज याद तेरी आई फिर
स्याह कुछ और मेरी रात हुई जाती है,
आँख पहले भी यह रोई थी बहुत तेरे लिए
अब तो लगता है कि बरसात हुई जाती है।

तू क्या रूठा मेरे चेहरे का रंग रूठ गया
तू क्या छूटा मेरे दिल ने ही मुझे छोड़ दिया,
इस तरह ग़म में है बदली हुई हर एक ख़ुशी
जैसे मंडप में ही दुलहिन ने दम तोड़ दिया।

प्यार करके ही तू मुझे भूल गया लेकिन
मैं तेरे प्यार का एहसान चुकाऊँ कैसे,
जिसके सीने से लिपट आँख है रोई सौ बार
ऐसी तस्वीर से आँसू यह छिपाऊँ कैसे।

आज भी तेरे बेनिशान किसी कोने में
मेरे गुमनाम उम्मीदों की बसी बस्ती है,
आज ही तेरी किसी मिल के किसी फाटक पर
मेरी मजबूर ग़रीबी खड़ी तरसती है।

फ़र्श पर तेरे 'तिलक हॉल' के अब भी जाकर
ढीठ बचपन मेरे गीतों का खेल खेल आता है,
आज ही तेरे 'फूल बाग़' की हर पत्ती पर
ओस बनके मेरा दर्द बरस जाता है।

करती टाइप किसी ऑफ़िस की किसी टेबिल पर
आज भी बैठी कहीं होगी थकावट मेरी,
खोई-खोई-सी परेशान किसी उलझन में
किसी फ़ाइल पै झुकी होगी लिखावट मेरी।

'कुसरवाँ' की वह अँधेरी-सी हयादार गली
मेरे 'गुंजन' ने जहाँ पहली किरन देखी थी,
मेरी बदनाम जवानी के बुढ़ापे ने जहाँ
ज़िंदगी भूख के शोलों में दफ़न देखी थी।

और ऋषियों के नाम वाला वह नामी कॉलिज
प्यार देकर भी न्याय जो न दे सका मुझको,
मेरी बग़िया कि हवा जो तू उधर से गुज़रे
कुछ भी कहना न, बस सीने से लगाना उसको।

क्योंकि वह ज्ञान का एक तीर्थ है जिसके तट पर
खेलकर मेरी क़लम आज सुहागिन है बनी,
क्योंकि वह शिवाला है जिसकी देहरी पर
होके नत शीश मेरी अर्चना हुई है धनी।


            

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