शहर की व्यथाएँ
कह रहीं हवाएँ।
लग रहा ऐसे
पत्थर के लोग हैं।
कर्मों के भोग
भोग रहे भोग हैं।।
गले में अटक गईं
जैसे सदाएँ।
एक किला विश्वास का
ढह गया।
और कलुषित मन
आँखों से बह गया।
चौकन्ने पहरू
हैं दाएँ-बाएँ।
खिले सभी फूल
गंधहीन हो गए।
आचरण बहारों के
ख़ौफ़ बो गए।।
लोगों की टोली
लोकगीत गाएँ।
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