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ख़ूबसूरती निहारती आईने (कविता)

ख़ुशहाल थी मेरी ज़िन्दगी,
कुछ भी ग़म नहीं था जीने में।
हँसती इठलाती फिरती थी,
कोई ख़ौफ़ नहीं था सीने में।

पिता की लाडली, माँ की परी,
ख़ूबसूरती निहारती आईने में।

उम्र बढ़ रही, जवानी का दौर,
कुछ दरिंदे जिनकी नज़रें मेरी ओर।
बे-ख़ौफ़ घूम रहे है सड़को पर,
बिमार दिमाग़ी यहाँ चारों ओर।

मैं नादान हर बात से अनजान
मुझे कुछ ख़ैर-ओ-ख़बर नहीं।
घबरा गई मैं उनको देखकर,
घेर लिया मुझे अकेला पाकर।

क्या-क्या कहा मैं सुन नहीं पाई,
मैं रोई चिल्लाई विनती की रो रोकर।
एक दरिंदा ग़ुस्साया मुझ पर,
फेंक दिया तेज़ाब मेरे ऊपर।

ख़ुश हो रहे दरिंदे मुझे देखकर,
मैं रह गई बेबस और लाचार होकर।
क्या कोई गुनाह कर दिया था,
मैंने उनको जवाब देकर।

कोई तो बताओ मेरा क़सूर,
क्यों दें गए मुझे ज़िन्दगी भर का नासूर।
कौन है मेरा दुश्मन कोई तो बताओ,
मेरी जवानी, मेरा हुस्न या मेरा नूर।

किसे दोष दू अपनी बर्बादी का,
सब कुछ ख़त्म हो गया पल भर में।
हँसती खेलती ज़िन्दगी थी मेरी,
ग़म ही ग़म भर दिए मेरे जीवन में।

हाँ थोड़ी देर के लिए मैं डर गई,
लगा वक़्त का मरहम उभर गई।
जिस्म जला है मगर हौंसला नहीं,
क्या सोचा तुमने मैं मर गई।

शिखर पर चढना सीख लिया,
समक्ष तूफ़ानों के अड़ना सीख लिया।
कैसे हार जाती मैं मौत से,
मैं नारी हूँ हर दौर से लड़ना सीख लिया।

देख मेरे पास कितनी राखी है,
अभी ज़िन्दा जिस्मों पर ख़ाकी है।
कैसे हार जाती मैं मौत से,
अभी तेरी ज़िन्दगी में सुनामी बाक़ी है।

क्या सोचा तुमने मैं बेचारी हूँ,
क्या सोचा मैं बेबस लाचारी हूँ।
यमराज भी झुका है मेरे आगे,
मैं नारी हूँ मौत पर भी भारी हूँ।

बदल चुके अब पुराने ख़यालात है,
देखो सारी फ़िज़ाएँ अब मेरे साथ है।
घमंड तो ना रहा उस रावण का भी,
तो फिर तेरी क्या औक़ात है।

हर जीत सम्भव है जगत में,
ख़ुद का ख़ुद पर विश्वास होना चाहिए।

कहना चाहती हूँ देश के हुक्मरानों से,
सदनो में ऐसा क़ानून पास होना चाहिए।
सज़ा मिले सारे वहसी दरिन्दों को ऐसी,
ज़िन्दा रहे मगर ज़िन्दा लाश होना चाहिए।


लेखन तिथि : 7 अक्टूबर, 2021
            

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