तेरे नूरानी बदन पे
कसक कोई सजी हैं,
तुझसे मिलकर कह दूँ
होठों में कोई बात दबी हैं।
मिन्नतें तमाम अज़ीज़ों की
मेरे संग काफ़िर गुज़री हैं,
लगता हैं कि पेशानी पे
लकीर कोई कम बनी हैं।
मैं जमा करता रहा
ख़्यालों को दिल में,
तमन्ना हैं वो रूह मिलें
जिसने ग़ज़ल लिखी हैं।
ये जन्मदिन भी चला गया
माज़ी के हुजूम में कहीं,
अब तो सुख़न से निकलो
कि बड़ी तलब लगी हैं।
हाथों की कुदरती मेहंदी का
कोई टूटा फूल कहूँ तुझें,
सींचता हूँ शजर-ए-ज़िस्म को,
तू मानिंद तुलसी दिखी हैं।
मेरी तन्हाइयों में तेरे चेहरे ने
आज यूँ शिरकत की हैं,
'कर्मवीर' बेताबी ने जैसे
कोई रफ़्तार पकड़ रखी हैं।।
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