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कृष्णा के पार्थ (कविता)

मेरा आशियाँ मुन्तज़िर हैं कि अब तो तिरी आँखें टिमटिमाए,
ज़रा आओ, लोग उम्मीद से हैं कब यहॉं बिजली जगमगाए।

काग़ज़ को बनाऊँ अब्र और आँखों के मोतियों से भर दूँ,
सँजोकर तुझें हुरूफ़ में काग़ज़ पर ऐसे रखूँ की इंद्रधनुष बन जाए।

तिरी अमीरी की धज्जियाँ उड़ गई, दर्द धुँआ हो गया,
बच्चा दुआओं के साए में हैं, देख मैं अमीर हो गया।

निकले हैं तिरी जुस्तजू के लिए इस भीड़ में,
लगता हैं फिर इन आँखों से गुलाबी नगरी घूमी जाएगी।

मेरे मिज़ाज में रंग रहे अब मुकम्मल सारे,
मैं अब मुस्करा दूँगा गर छोड़ जाओगे सारे।

ये जो आसमाँ में दूधिया रंग में आया हैं,
तेरे कपोलों का रंग हैं या कोहरा छाया हैं।

आजकल कुछ यूँ ख़ास होता हैं, दुआ की जाती हैं,
बच्चा आँखें खोलता हैं और दुआ क़बूल हो जाती हैं।

मैं क्यूँ ना देखूँ तुम्हारी इन दो नन्हीं आँखों में,
आजकल घर का आईना तिरी आँखों में छिपा हुआ हैं।

दिल में अब भी तिरी तिश्नगी बाक़ी क्यूँ हैं,
तुझसे मिलकर आया हूँ फिर भी शदीद क्यूँ हैं।

तिरी रानाई पे हुजूम नज़रों का लगता हैं,
शाद हैं वो चश्म जिसे तिरा दीदार मिलता हैं।

उम्र अब तुझें वापिस पीछे चलना ही होगा,
पेड़ अब देखेगा जड़ किस तरह से पेड़ बनी हैं।

हे पार्थ, अब उठ, तुझें एक और कर्मवीर बनना होगा,
जीवन एक रंगमंच हैं, यहाँ रण नहीं कर्म करना होगा।


लेखन तिथि : 31 दिसम्बर, 2022
            

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