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लोक आस्था का पर्व छठ (आलेख) Editior's Choice

"छठी मैया आइतन आज..."
छठ पर्व के आगमन होते ही यह गीत भारतवर्ष के कई राज्यों में विशेष रूप से बिहार, उत्तरप्रदेश और झारखण्ड के गली-मोहल्लों में गूँजने लगती है और वातावरण भक्तिमय हो जाता है।

छठ सूर्योपासना के लिए प्रसिद्ध है जो कार्तिक शुक्ल पक्ष के षष्ठी तिथि को व्रत मनाने और मूलतः सूर्य षष्ठी व्रत होने के कारण इस महापर्व को छठ कहा जाता है।
चैत महीने में शक्ल पक्ष चतुर्थी तिथि से लेकर सप्तमी तिथि तक चैती छठ भी मनाया जाता है।

पौराणिक मान्यता के अनुसार प्रथम देवासुर संग्राम में जब असुरों के हाथों देवता हार गए थे, तब देव माता अदिति ने तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिए सूर्य मंदिर में छठी मैया की आराधना की थी। तब छठी मैया ने प्रसन्न होकर उन्हें सर्वगुण संपन्न तेजस्वी पुत्र होने का वरदान दिया। इसके बाद त्रिदेव रूप में अदिति को पुत्र आदित्य भगवान की प्राप्ति हुई जिन्होनें असुरों पर देवताओं को विजय दिलाई और उसी काल से छठ पर्व का प्रचलन शुरू हो गया।
छठ पर्व के शुरुआत को लेकर कई और भी मान्यताएँ हैं लेकिन सबसे प्रमुख बात यह है कि भारतवर्ष में सूर्योपासना की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। ऋग्वेद काल में सूर्य की वंदना का उल्लेख देवता के रूप में है तो उत्तर वैदिक काल में मानवीय रूप में इसकी कल्पना की गई। पौराणिक काल में सूर्य को आरोग्य देवता मानकर सूर्य की उपासना की जाती थी। मध्यकाल तक छठ सूर्योपासना के व्यवस्थित पर्व के रूप में प्रतिष्ठित हो गई जो आज तक चला आ रहा है।

सूर्य देवता हैं जिन्हें मूर्त रूप में देखा जा सकता है।
मूर्त रूप में सूर्य की उपासना का चार दिवसीय कठिन व्रत छठ है जो क्रमशः नहाय-खाय से शुरू कर के खरना, संध्या अर्घ्य और उदीयमान सूर्य अर्घ्य तक सम्पन्न होता है।
सूर्य की शक्तियों का मुख्य स्रोत उनकी पत्नी उषा और प्रत्युषा है जिनकी आराधना सूर्य के साथ-साथ संयुक्त रूप से प्रातःकाल सूर्य की पहली किरण और सायंकाल में सूर्य की अंतिम किरण प्रत्युषा को अर्घ्य देकर आराधना की जाती है।

व्रती द्वारा आम की लकड़ी सुलगाकर बनाए गए गेहूँ के आटे से बने ठेकुए के साथ फल-सब्जी, कन्द-मूल गन्ना, नारियल, बड़ा निम्बू आदि प्रसाद के रूप में भगवान सूर्य को अर्पित किया जाता है।
बाँस निर्मित सूप, टोकरी और मिट्टी के बर्तन का उपयोग प्रसाद बनाने और रखने के लिए किया जाता है।
नहाय-खाय के दूसरे दिन 'खरना' होता है।

महिलाएँ सुरमय कंठ से गाती हैं-
"केलवा के पात पर उगे लन सुरुजमल झाँके – झुके..."
तीसरे दिन डूबते हुए सूर्य को दूध अर्पण करने हेतु व्रती के साथ महिलाओं और पुरुषों की बड़ी संख्या नदी या तालाब की ओर चल पड़ते हैं।
छठ गीत के मधुर स्वर चारों और गूँज उठता है-
"काँच ही बाँस के बहँगया, बहँगी लचकति जाय..."
ठीक इसी तरह चौथे दिन उदीयमान सूर्य को अर्घ्य देते हुए महिलाएँ एक स्वर में गीत गाती है-
"उठु सुरुज भइले बिहान..."

भक्ति और आध्यात्म से परिपूर्ण यह पर्व सादगी और पवित्रता का प्रतीक है।
साफ़-सफ़ाई की ख़ास ध्यान रखी जाने वाली यह पर्व लोकपक्ष का महान पर्व है। इस पर्व के लिए न तो पुरोहित की ज़रूरत होती है और न विशेष ख़र्चे की बल्कि पास-पड़ोसियों के सहयोग और सेवाभाव से यह महापर्व सम्पन्न होता है। छठ व्रत ख़ासतौर से महिलाएँ करती हैं लेकिन आजकल बड़ी संख्या में पुरुष भी इस उत्सव का पालन करते हैं और नदी, तालाब आदि जलाशयों में जाकर सूर्य देवता को अर्घ्य देते हैं। प्रसाद चढ़ाते हैं और सबको प्रसाद वितरण करते हैं। इस तरह छठ महापर्व सम्पन्न होता है।

किसी तरह का भेदभाव रहित इस पर्व में देश की जनता हफ़्ते भर पहले से एकजुटता दिखाते हुए रास्ते, गली-मोहल्लों और छठ घाट की साफ़-सफ़ाई में लग जाते हैं।
एकता का संदेश देती लोकआस्था का महान पर्व है छठ।
आइए, हम सभी आपसी प्रेम-भाव से एक जुट होकर छठ पर्व मनाएँ और देश की ख़ुशहाली के लिए कामना करें।


लेखन तिथि : नवम्बर, 2020
            

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