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माँ (कविता)

माँ नहीं होती, तो मैं कहाँ होता,
न तुम होते, न ये जहाँ होता।
मुझे याद हैं वो रातें,
माँ की लोरियाँ और बातें।
रात में न जाने कितनी बार मैं जागता था,
कभी दूध, तो कभी पानी माँगता था।
मेरे कुनकुनाने पर जब माँ थपथपाती थी,
ख़ुद जागती और मुझे सुलाती थी।
रात में न जाने कितनी बार मेरे पेशाब करने पर,
तुरंत कपड़े बदलती और मुझे सुलाती थी।
बिस्तर सूखा ही रहता था मेरा रात भर,
ख़ुद गीले में ही सो जाती थी।
ख़ुद जागती थी रात भर मेरी ख़ातिर,
कभी विस्तर पर तो कभी गोद में सुलाती थी।
मेरी माँ थी साहब जो मेरा ख़्याल रखती थी हरदम,
हँसना पंसद था उसे मेरा, मुझे कहाँ रुलाती थी।
सारे जहाँ में मेरी माँ को मुझसे कोई प्यारा न था,
मैं रोऊँ क्षणिक भी, उसे गंवारा न था।
आज मैं जो कुछ भी हूँ, मेरी माँ की बदौलत है,
माँ से ही ये शिक्षा, दीक्षा और शौहरत है।
माँ मैं तेरे त्याग और प्यार का क़र्ज़ कहाँ चुका सकता हूँ,
मैं हर पल बस तेरे चरणों में सिर को झुका सकता हूँ।
सोता था रात भर सुकून से माँ तेरी गोद में, अब वो रात कहाँ है,
क़र्ज़ चुका सकूँ तेरे अनगिनत एहसानों का, मेरी इतनी औक़ात कहाँ है।
दुखाया हो दिल माँ तेरा कभी, तो मुझे माफ़ कर देना,
मिले हर जनम में माँ तू ही, ये इंसाफ़ कर देना।


लेखन तिथि : 26 फ़रवरी, 2021
            

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