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महामारी (कविता)

ये कैसी महामारी की
आँधी चल रही है,
असमय आई मौतों से
ज़िंदगी डर रही है।

अस्पतालों में मरीज़ों
के लिए जगह भी नहीं है,
बिना साँसों के अस्पतालों में
मौत हो रही हैं।

चीख़ों से अस्पतालों की
दीवारें कंप रहीं हैं,
दवाइयों की कालाबाज़ारी
शर्मशार कर रही है।

आपदा की इस घड़ी में
जो धन कमा रहे हैं,
ऐसे चांडालों की
इंसानियत मर चुकी है।

रिश्ते नाते दोस्तों की
न धन की चल रही है,
बॉडी प्लास्टिक में लिपटकर
बिना कफ़न जल रही है।

इंसाँ की उखड़ती साँसें
तांडव मचा रही हैं,
हैसियत है क्या हमारी
हमको बता रही है।

घर में है क़ैद ज़िन्दगी
रौनक नहीं रही है,
आपस में मिलने जुलने से
ज़िंदगियाँ डर रही हैं।

सूनी शहर की गलियाँ
रो-रो कर कह रही हैं,
घर में ही रहना इंसाँ
मौत टहल रही‌ है।

ज़िंदगी अच्छे से जी लो
ये ज़िंदगी कह रही है,
यहाँ ख़ुशी से रहें सब
ये दुआ कर रही है।

ये कैसी महामारी की
आँधी चल रही है,
असमय आई मौतों से
ज़िंदगी डर रही है।


लेखन तिथि : 20 अप्रैल, 2021
            

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