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मैं पिता जो ठहरा (कविता) Editior's Choice

मैं पिता जो ठहरा-
प्यार जता नहीं पाया।

बच्चे माँ से फ़रियाद किया करते थे,
पापा को घूमने के लिए मना लो,
ये मनुहार किया करते थे।

बच्चों संग घूमना मुझे भी पसंद है,
मैं उनको बता नहीं पाया।
मैं पिता जो ठहरा।

बच्चों को स्कूल से आने में जब कभी देर हो जाती थी,
पत्नी के दिल की बेचैनी बहुत बढ़ जाती थी।

बच्चे आ जाएँगे, मैं उसे ढाँढस दिलाता था,
ये बात और है कि मन ही मन मैं भी घबराता था।

तब पत्नी जम कर मुझे ताने सुनाती थी,
आपका हृदय नहीं पत्थर हैं, ये मुझे बतलाती थी।

मैं अपने हृदय के पिघलते पत्थर को दिखा नहीं पाया।
मैं पिता जो ठहरा।

जब पढ़ाई से उनका मन घबराता था,
और होमवर्क का डर सताता था।

तब मेरी डाँट उनके दिल को दुखाती थी,
मेरी सीख उनके कानों को नहीं भाती थी।

फिर पत्नी ग़ुस्से में अपना पारा बढ़ा लिया करती थी,
बाप नहीं जल्लाद हो ये मुझे समझा दिया करती थी।

पर गुरु बन ख़ुद को कठोर बना लिया करता था,
कच्चे घरे को बाहर से हल्की थाप दिया करता था।

उनके भविष्य की चिंता में चेहरे से
कठोरता का आवरण हटा नहीं पाया।
मैं पिता जो ठहरा।

पत्नी एक बात पर हमेशा मुझे टोकती थी,
आप बच्चों की तारीफ़ नहीं करते, इस पर मुझे कोसती थी।

मैं हँस कर उसकी बातें टाल दिया करता था,
तारीफ़ से बिगड़ न जाए ये सोच मन को मार लिया करता था।

अपनी हँसी में छुपे राज़ को मैं दिखा नहीं पाया।
मैं पिता जो ठहरा।


रचनाकार : विजय कृष्ण
लेखन तिथि : 11 जुलाई, 2018
            

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