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मैं (कविता)

खोज रहा हूँ ख़ुद में ख़ुद को,
न पाया कभी ख़ुद को खोज।
न जाने कहाँ खो गया मैं?
खोज ही रहा ख़ुद को रोज़।

फँसा रिश्तों के भँवरजाल में,
भूल सा गया था मैं ख़ुद को।
सब कुछ पाया मैंने यहाँ,
पा ही न सका कभी मैं ख़ुद को।

फ़र्ज़ निभाता ही रह गया,
पर कोई हुए न अपने।
सबके सपने किए पूरे,
अधूरे रह गए मेरे ही सपने।

पहनाई समाज ने भी ज़ंजीरें,
लाद दी मुझ पर बंदिशें हज़ार।
कर्तव्य की राह पर चलकर,
ख़ुद ने ख़ुद को दिया बिसार।

बचपन सारा यूँ ही गुज़रा,
जवानी भी अब बीत गई,
दस्तक दे रहा बुढ़ापा,
मेरे 'मैं' की रवानी खो गई।

खो गई पहचान मेरी,
बुनता रह गया ताना बाना।
रूठ सा गया जाने कब,
मुझसे मेरा प्यारा याराना।

बुढ़ापे की इस दहलीज पर,
अब चाहूँ मैं भी अपनी पहचान।
जी लूँ ख़ुशी का हर मंज़र,
दौड़ लूँ मैं भी ज़िंदगी की उड़ान।

चाहता हूँ संसार से यही अब,
मुझसे मेरा 'मैं' ना छीनो।
पा लूँ मैं भी मेरी चाहतें,
मेरी पहचान मुझसे ना छीनो।

ख़ुशियाँ बाँटी अपनों को,
अब चाहूँ अपनों से मान।
मेरी राह का रोड़ा न बनो,
पूरे कर लूँ अधूरे अरमान।

'लोग क्या कहेंगे?' अब न सोचूँ,
अपने 'मैं' की भी सुन लूँ बातें।
पा लूँ मैं भी अपने आप को,
पूरी कर लूँ अपनी भी हसरतें।

मिली ज़िंदगी दो चार दिन,
बचे उसके भी अब दो ही दिन।
दो दिनों में जी लूँ सब कुछ,
मेरा हर पल हो एक दिन।

मीठे कड़वे हुए कई अनुभव,
कर ली जीवन की दौड़ भाग।
पंख लगा कर अब उड़ जाऊँ,
गा लूँ जीवन का हर एक राग।

अब उड़ रहा बन के पंछी,
घूम रहा मैं सारा संसार।
मिल गया मन का आसमान,
बह रही ख़ुशियों की जलधार।

अब पा लिया मैंने ख़ुद को,
खोज हो गई मेरी अब पूरी।
अब जीना सीख लिया मैंने,
न रहेगी अब कोई चाहत अधूरी।


लेखन तिथि : 20 जुलाई, 2021
            

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