मृग के दृग में झाँकता खग,
प्रेमिल नैनों में बसा है जग।
मूक संवाद करें द्वय नयन,
दृश्य अति मनोरम रहा लग।
मधुमय भाषा अनुराग की,
स्वर लहरी रूचिर राग की।
कण कण में व्याप्त प्रीत है,
उर उद्दीप्त प्रभा चिराग़ की।
कौन है अछूता मनोभावों से,
प्रेम, द्वेष व भय के प्रभावों से।
प्रेमासिक्त मृदा से रचा जीव,
दूषित हुआ मन भेदभावों से।।
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