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नदी व घाट (कविता) Editior's Choice

जीवन नदी है
और गुरू
घाट या पड़ाव,
जो प्रतिबद्ध हैं सदियों से
बिगड़ैल नदियों का रूख
मोड़ने में...
गुरु
नदी में बहती अनचाही
खरपतवार या दूषित अवयवों
को निकालकर
निर्दिष्ट करते हैं नदी को उसके प्रक्षालन के लिए
ताकि नदी सधी हुई, सरल व पारदर्शी होकर
अनवरत बह सके,
जीवन के कहीं पर उथले और कहीं पर धंसे हुए रास्तों पर,
कभी अनायास जब
हिम पाषाण बहकर चले आते हैं जीवन मे,
ताल व सरोवर टूट जाते हैं
बादलों के फटने से,
तभी उफ़नकर,अंधकारमय व दिशाहीन होकर
यह विद्रोही नदी कुचलने लगती है
सभ्यताओं और संस्कारों के नगर को
घाट ही हैं जो तटबंध करके
वश में करते हैं नदी के इस उन्माद को
ठाँव देते हैं
नदी को आत्मसात करने
के लिए अपनी ही उगाई
फ़सलों पर...
परिणामस्वरूप,
वक्षस्थल पर जब कमल
खिल जाते हैं इस नदी के
आचमन करती हैं इसकी पीढ़ी दर पीढ़ी
तर जाने हेतु
किंतु,
घाटों का मार्गदर्शक होना
नदियों की स्वतःस्फूर्तता पर भी तो निर्भर करता है,
नदियों को चाहिए कि वे निःस्पृह अपभ्रंश से दूर
घाटों के चरण स्पर्श करके
चुपचाप रेंगती हुई बहती चली जाएँ
सफल फलीतार्थ हेतु
सुदृढ़ व सुगठित गंतव्य की ओर।


            

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