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नफ़रत (कविता)

नफ़रतों का फैला सैलाब, घनघोर है षड्यंत्र,
हो रही ओछी राजनीति, ख़तरे में है गणतंत्र।
स्वतंत्र राष्ट्र के हम, हैं नागरिक सभी परतंत्र,
दशक कई बीत गए, पर कहाँ हुए स्वतंत्र?

साज़िश है बड़ी, ख़तरे में है हमारी एकता,
हर किसी की यही इच्छा, मिल जाए सत्ता।
न किसी से प्रेम भाव, न किसी से राब्ता,
रिश्वत का है ज़माना, न हो चाहे गुणवत्ता।

बढ़ रहा नफ़रत का ज़ोर, मारने को आमादा,
इंसानियत ने भी अपना, तोड़ दिया है वादा।
थोड़े में कोई ख़ुश नहीं, चाहिए ज़्यादा-ज़्यादा,
साम दाम दण्ड भेद, यही तो रह गया इरादा।

दवाओं में है मिलावट, अपनी ही है चिंता,
औरों की नहीं परवाह, जल जाए चाहे चिता।
नेताओं को काम नहीं, काटते रहते फीता,
चारों ओर मारकाट, रक्त की बहती सरिता।

सीमाओं पर अतिक्रमण, देर से लेते संज्ञान,
हथियारों की होड़ है, दुश्मन हुआ विज्ञान।
अजीब सी है कश्मकश, हो रहें अज्ञान,
कौन अपना, कौन पराया, कैसे पाए ज्ञान?

रक्षक हो रहे हैं भक्षक, कोई नहीं प्रतिपालक,
घर में ही भरे हैं भेदी, लगती नहीं भनक।
हो रहे उन्मत्त, फैली पागलपन की सनक,
राष्ट्रभक्ति की नहीं, दूर-दूर तक झलक।

कैसा यह ज़माना आया, अपना हुआ पराया,
जाने कब, क्यों, कैसे, अजीब यह दौर आया।
ईश्वर ने तो ऐसे कभी, इंसान को न बनाया,
इंसानियत की मौत पर, दिल बड़ा घबराया।

न फैलाओ वैमनस्य, खोलो दिलों के द्वार,
भुला दो नफ़रत सारी, बहाओ मधुर बयार।
महक उठे प्रीत के भाव, झूमे सारा संसार,
आए बारिश के बुँदे, बादल पे होके सवार।

खिले ख़ुशी का उपवन, महके मन की बगिया,
बहा दो पूरी धरा पर, प्रेम की सारी नदियाँ।
धरती से गगन तक, खिले फूलों की कलियाँ,
चूम लो सारा संसार, फैलाके अपनी बहियाँ।

मिटा दो सारी नफ़रतें, मिटादो सारे द्वेष,
छोड़ो छल की बातें, भुला दो सारे क्लेश।
न माँगे कोई भीख, न रहे कोई दरवेश,
सर ऊँचा कर सके, मेरा यह भारत देश।

मिलेगी आज़ाद भारत को, फिर से आज़ादी,
फलेंगे फूलेंगे सब, न होगी कभी कोई बरबादी।
लाएँ जनसंख्या नियंत्रण बिल, न बढ़े और आबादी,
जनसंख्या यूँ ही बढ़ती रही तो, हो जाएगी बरबादी।


लेखन तिथि : 30 सितम्बर, 2021
            

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