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नित जीवन रण मैं लड़ता हूँ (कविता) Editior's Choice

हे! कालचक्र तुम सुनो आज,
अस्तित्व मेरा क्या चुनो आज।
मैं समरभूमि का एक बिगुल,
बजता रहता हूँ नित ही खुल।

हूँ कभी बाँधता अंतर्मन,
स्वप्नों का करता कभी दमन।
फिर भी आशा ले बढ़ता हूँ।
नित जीवन रण मैं लड़ता हूँ।

है दिखता वह कुरुक्षेत्र यहाँ,
खुल जाते हैं दो नेत्र यहाँ।
संघर्षित पथ का एक अंश,
मिलते हैं अगणित सर्प दंश।

बन जाता यही युधिष्ठिर मन,
है कभी भीम सा बनता तन।
नित योद्धा बन रथ चढ़ता हूँ,
नित जीवन रण मैं लड़ता हूँ।

है धूप छाँव आती पल-पल,
उर में उठ जाती है हलचल।
भावनाएँ यहाँ पर टल जातीं,
हैं करुण वेदना जल जातीं।

फिर भी मैं धर्म को लेता चुन,
बन जाता स्वयं कृष्ण अर्जुन।
फिर जीवन पृष्ठ मैं पढ़ता हूँ,
नित जीवन रण मैं लड़ता हूँ।

घट-घट ही निराशा है दिखती,
फिर भी नव आशा है लिखती।
जीवन जो रह जाता वह शेष,
मैं स्वयं ही बन जाता उपदेश।

मैं कभी चक्रव्यूह देता भेद,
है कभी स्वयं पर होता खेद।
फिर भी मोती मैं गढ़ता हूँ,
नित जीवन रण मैं लड़ता हूँ।


लेखन तिथि : 22 मई, 2022
            

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