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फ़ोटो (कविता)

हाथ लग गई बचपन की फ़ोटो,
मिले कई लम्हें हँसते हुए।
याद आ गए पुराने दोस्त,
एक दूजे से गले मिलते हुए।

याद आया गुज़रा वह ज़माना,
हो रहा था मन में उल्लास।
दृश्यमान हुए बचपन के लम्हें,
हो रहा था सुकून का आभास।

याद आ गए स्कूल के पल,
गेट पर खड़े प्रिंसिपल दिनेश।
मरोड़ देते थे हाथों से कान,
अगर दिख जाते लंबे केश।

याद आ गई सारी शैतानियाँ,
नादानियाँ भी शरमा उठी।
घंटों खड़े रहते थे बेंच पर,
क्लास टीचर दिखाते थे मुट्ठी।

वह बाहर लटकता हुआ घंटा,
कभी ख़ुद ही बजा देते थे।
अगर मालूम होता चौकीदार को,
मार भी तो उनकी खाते थे।

कभी भूल जाते थे कॉपी किताब,
बन जाते थे मुर्गा क्लास में।
काँपते थे थर-थर क्लास में,
खड़ी जब रहती टीचर पास में।

स्कूल से घर तक पैदल आना,
कभी दोस्तों के घर चले जाना।
कभी दोस्तों को घर ले आना,
बड़ा सुहाना था यह ताना-बाना।

घंटों बैठे रहते थे नदी किनारे,
मसाले वाली जलपाई खाते रहते।
कभी खाते रहते संतरे की फाँक,
दोस्तों संग घंटों बतियाते रहते।

कबड्डी खेलते थे हा-डू-डू,
कभी खेलते थे खो-खो।
कभी खेलते गुल्ली डंडा,
अस्सी, नब्बे, पूरे सौ।

कभी दिनेश सर की लाठी,
कभी नूरुल सर का चाँटा।
याद आती है कक्षा पाँचवी,
किसी ने किसी का कान था काटा।

मुसीबतें ही मुसीबतें थी जीवन में,
रोज़मर्रा की असुविधाएँ बहुत थी।
पर था एक मस्ती का आलम,
बड़ों की हिदायतें भी बहुत थी।

भाड़े के घर में रहते थे,
दादाजी के संग सोते थे।
कुएँ से पानी निकाल-निकाल,
खुले में बाल्टी से नहाते थे।

कमियाँ जीवन में बहुत थी,
मगर ज़िंदगी में सुकून बहुत था।
आज जैसी चिक-चिक न थी,
चाहतों का अरमान बहुत था।

दादा-दादी का स्नेह अपार था,
माँ का भरपूर लाड़-दुलार भी था।
आँखों में शर्म का परदा था,
पिता की आँखों का डर भी था।

दादी बनाती जाती गुलाब जामुन,
खाते थे हम पाँचों घूम-घूम।
इतने स्वाद होते थे गुलाब जामुन,
दादी को हम लेते थे चूम-चूम।

दादाजी को खाना परोसते,
आधा तो हम ही खा जाते।
हमारी हरकतों से परेशान होकर,
दादाजी भूखे ही उठ जाते।

रूठ जब जाता दादाजी से,
महीनों नहीं करता था बात।
फिर दादाजी से सुलह हो जाती,
देते जब दस के नोट की सौग़ात।

फिर गए हम नए घर में,
कमरे थे सब के अलग अलग।
बचपन का था तब भी आलम,
पुराना घर याद आता जब तब।

बड़े भैया की हो गई शादी,
बहन की भी उठ गई डोली।
मैं भी आ गया दूसरे शहर,
खाली हो गई बचपन की झोली।

कॉलेज की ज़िंदगी थी अलग,
नए दोस्त बने, पुराने कुछ बिसर गए।
छूट गया था बचपन का आलम,
बचपन के तराने कई बिखर गए।

पढ़ाई पूरी कर ली जब मैने,
हो गई शादी दो साल के अंदर।
कुछ अनकही घटनाएँ हो गई,
घुटने लगा था मन के अंदर।

किसी ने मुझे लिया संभाल,
टल गया सारा झगड़ा और बवाल।
क्यूँ हुए घर में सब नाराज़,
आज भी उठता मन में सवाल।

ज़िंदगी यूँ ही गुज़रती गई,
ज़िम्मेदारियाँ भी बढ़ गई बहुत।
दो बच्चों को पालना था,
परेशानियाँ भी तो थी अकूत।

समय की चोट लग ही गई,
बीमारी खा गई पूरा शरीर।
किसी की मन्नतों ने बचा लिया,
अपने पराए की हो गईं तासीर।

ज़िंदगी यूँ ही चलती रही,
पिताजी का हो गया देहांत।
लगता था बहुत अकेलापन,
हो गया एक युग का अंत।

बच्चे बड़े हो गए अब तक,
सबकी अपनी पसंद नापसंद।
हो जाती अब तो अनबन,
कुछ न हो जो उनका मनपसंद।

याद करता हूँ जब बचपन के दिन,
एक टीस सी उठ जाती मन में।
सब कुछ हैं आज ज़िंदगी में,
बहुत कुछ फिर भी छूटा जीवन में।

मन करता लौटा लाऊँ बचपन,
पालूँ फिर बचपन के वो लम्हें।
जी लूँ ज़िंदगी फिर एक बार,
जी लूँ फिर बचपन के लम्हें।

लौटा लाऊँ वह खोए रिश्ते,
लौटा लालूँ बचपन की मस्ती।
पा जाऊँ वह बचपन का शहर,
चलाऊँ फिर से काग़ज़ की कश्ती।

ऐसी बहुत हैं बातें अनकही,
बन जाएगी पूरी किताब।
क्या लिखूँ और क्या छोड़ दूँ,
मिला नहीं इस बात का जवाब।


लेखन तिथि : 8 सितम्बर, 2021
            

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