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पितृपक्ष (कविता)

हमारे पूर्वज हमें जब भी कभी याद आते,
पावन पितृपक्ष हम तब तब हैं मनाते।
अपनी जड़ों से हम करते यूँ मुलाक़ातें,
संस्कारों और परंपराओं से हम जुड़ जाते।

मिलता जब हमें, पुरखों का आशीर्वाद,
होता तब ही हमारा, खाली मन आबाद।
पूर्वजों की जब भी हम, हैं बातें करते,
बचपन में हम तब, थोड़ा तो जी पाते।

बहुत पावन होती, हमारे पूर्वजों की धरोहर,
संस्कारों से होता, हमारा संपूर्ण जीवन प्रखर।
पूर्वजों की दुआओं में, होती ग़ज़ब की ताक़त,
उनकी यादों में होती, एक अलग ही नज़ाकत।

परंपराओं का करते हम, हार्दिक अभिनंदन,
करते हम तन मन से, ब्रह्मभोज का आयोजन।
करते हम उनके सभी, आदर्शों का अनुकरण,
इन आदर्शों से ही रहता, हमारा मन पावन।

नींव गढ़ कर हमारी, किया जीवन को सबल,
पूर्वजों का यह अनुदान, देता सदा मनोबल।
आओ आज करें हम, उनकी याद में तर्पण,
फल, मिष्टान्न आदि करें, उन्हे हम समर्पण।

श्रद्धा भक्ति से करें अर्चना, करें उनका समीरन,
पूर्वजों की आराधना में करें, दिल से अर्पण सुमन।
मार्ग प्रशस्त हो हमारा, मिले पूर्वजों की अनुकंपा,
आज करें आपकी पूजा, बनाए रखना हमपर कृपा।

आज पितृपक्ष पर कहूँ एक बात, करना है संवाद,
जीते-जी क्यूँ कर देते हम, बुज़ुर्गों का जीवन बर्बाद।
उनके रहते अगर देते हम, थोड़ा सा प्यार उन्हे,
गुज़र जाते ख़ुशी से, पूर्वजों के अंतिम कुछ लम्हे।

बुढ़ापे की चादर ओढ़े, तकते रहते अपनों की बाट,
हम कृतघ्न होकर देते, कोने में उनको एक खाट।
न चुकाते हम जीवन में, जीते जी उनका क़र्ज़,
हो जाते ख़ुदग़र्ज हम, नहीं चुकाते अपना फ़र्ज़।

आँखें झपकती नहीं उनकी, जोहते रहते राह,
आएगा कोई अपना, जताएगा अपनेपन की चाह।
काश दे पाते हम सभी, बुढ़ापे को ज़रा सा प्यार,
मिल जाता बुज़ुर्गों को, उनके जीने का आधार।

साँसें न अटकती उनकी, अगर देते हम थोड़ा संबल,
ख़ुशनुमा हो जाती ज़िंदगी, मिलता उन्हे मन का बल।
सार्थक हो जाता पितृपक्ष का अर्थ, मिल जाता सोपान,
आओ आज करें हम, बड़ो का दिल से आचमन।

थाम ले थरथराती उँगलियाँ, देंदे मुहब्बत का नज़राना,
बनें बुढ़ापे की लाठी, न छीने उनसे आशियाना।
करें कुछ ऐसा जीवन में, जीवन हो जाए सुहाना,
बुढ़ापा अभिशाप न रहे, देखे सारा यह ज़माना।


लेखन तिथि : 3 अक्टूबर, 2021
            

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