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प्रेम (कविता)

सरिता से पूछा सागर ने
तुम मुझ में क्यों मिल जाती हो,
मंद-मंद मुस्काते हुए
अपना अस्तित्व खो जाती हो।

प्रेमी ने पूछा प्रियसी से
तुम सब कुछ छोड़, मुझसे मिलने क्यों आती हो,
लोक लज्जा सब छोड कर, मेरी बाहों में आ जाती हो।
क्या यही प्यार है, यही समर्पण
बिन सोचे, बिन जाने जिस पर
तन मन है न्यौछावर।

बिना किसी अभिमान के
सरिता सागर से मिल जाती है,
बिना किसी स्वार्थ के
प्रियसी प्रेमी से मिल जाती है।

यही प्रेम की परिभाषा है,
जिसमें न कोई आशा है।
एक पानी एक प्यासा है,
ऐसे प्रेमी की अभिलाषा है।


रचनाकार : दीपक झा 'राज'
लेखन तिथि : 10 दिसम्बर, 2010
            

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