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प्रेम की परिकल्पना (लेख) Editior's Choice

'प्रेम' शब्द जितना मोहक, अनुभूत व हृदयग्राह्य है उतना ही इसकी अभिव्यक्ति गूढ़, शब्द-सीमा से परे और अधूरी है। प्रेम की व्याख्या भी पानी पर लकीर खींचने जैसा ही है, इसे चाहे जिस रूप में व्याख्यायित कर लिया जाए तथापि कहीं न कहीं एक रिक्तता रह जाती है, जो भावी पीढ़ी द्वारा उनके हल ढूँढ़ने के लिए उनके मानसिक उद्वेलन को बढ़ा देती है।

प्रेम रूपी बीज का अंकुरण उस भावना रूपी उपजाऊ भूमि पर होता है जो पूर्व में प्रेमजल से अभिसिंचित हो। प्रेम की सत्यता के समीप वही जा सका जिसने प्रेम के अथाह जल में गोता लगाया। फिर भी वो पूरी मोती न पा सका, कुछ हाथों से फिसल ही गईं। हमारे दैनिक जीवन में कुछ शब्द ऐसे है, जिनकी न तो पूर्ण अभिव्यक्ति संभव है और न ही इस पर मतैक्य ही है।

प्रेम अंधा नहीं होता, गर अंधा होता तो प्लेटफार्म पर भीख माँगने वाले किसी बेसहारा या अनाथ से भी हो जाता। 'प्रेम' जासूस होता है, जो नख से शिख तक सूक्ष्म दृष्टि से देखने के पश्चात ही अपने प्रेम की अभिव्यक्ति करता है। प्रेम दूसरों की आँखों से नही अपितु अपनी आँखों से देखता है। बिना परिचय के प्रेम नहीं हो सकता, यह परिचय पूर्णतया साक्षात्कार द्वारा ही पूर्ण होता है।
वस्तुतः बहुत दिनों तक किसी के रूप, गुण, कर्म आदि की सुनी हुई प्रशंसा हमारे मन में उसे पाने की लालसा को बढ़ा सकती है अपितु हमारे हृदय में प्रेम की उद्भावना नही कर सकती। ऐकांतिक प्रेम की गूढता और गंभीरता के बीच ही सच्चे प्रेम का प्रतिमान स्थापित होता है। जब तक पूर्व राग पुष्ट होकर पूर्ण रति या प्रेम के रूप में परिणित नही होता तब तक उसे चित्त की गंभीर वृत्ति 'प्रेम' की संज्ञा नहीं दे सकते।

यदि प्रेम को अध्यात्म के धरातल से देखें तो परिलक्षित यही होता कि भक्त को भगवान से, मानव को मानव से; मनुष्य को जीव जंतु व पेड़ पौधों से बाँधे रखने का कार्य एकल प्रेम का ही होता है। कदाचित प्रेम ही वह गूढ़ शक्ति है जिसने मानव सभ्यता को इतने संघर्षों के बाद भी अनवरत जोड़े रखा।
प्रेम सदा से ही विश्वास और समर्पण की आधारशिला पर टिका रहा। ये दोनो स्तभ जितने ही सुदृढ़ और स्थिर रहेंगे, हमारा प्रेम उतना ही पुष्ट और बलवती बना रह सकता है। प्रेम में एकनिष्ठता की प्रवृत्ति तो पूर्णरूपेण होनी ही चाहिए तभी प्रेम दीर्घायु हो सकेगा, वरना हमेशा एक रिक्तता हृदय के किसी कोने में छाई रहेगी।

निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि प्रेम जीवन का वो अनमोल रत्न है जो जीवन में सजीवता लाता है। रिश्तों में अपनापन बनाए रखता है और हमारे शरीर में सही अर्थों में हृदय होने का प्रमाण भी साबित करता है।


रचनाकार : प्रवीन 'पथिक'
लेखन तिथि : 25 जनवरी, 2022
            

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