सारा आलम गोश-बर-आवाज़ है,
आज किन हाथों में दिल का साज़ है।
तू जहाँ है ज़मज़मा-पर्दाज़ है,
दिल जहाँ है गोश-बर-आवाज़ है।
हाँ ज़रा जुरअत दिखा ऐ जज़्ब-ए-दिल,
हुस्न को पर्दे पे अपने नाज़ है।
हम-नशीं दिल की हक़ीक़त क्या कहूँ,
सोज़ में डूबा हुआ इक साज़ है।
आप की मख़मूर आँखों की क़सम,
मेरी मय-ख़्वारी अभी तक राज़ है।
हँस दिए वो मेरे रोने पर मगर,
उन के हँस देने में भी इक राज़ है।
छुप गए वो साज़-ए-हस्ती छेड़ कर,
अब तो बस आवाज़ ही आवाज़ है।
हुस्न को नाहक़ पशेमाँ कर दिया,
ऐ जुनूँ ये भी कोई अंदाज़ है।
सारी महफ़िल जिस पे झूम उट्ठी 'मजाज़',
वो तो आवाज़-ए-शिकस्त-ए-साज़ है।
रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें