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सफ़र (कविता)

चल पड़े तन्हा सफ़र पर,
मंज़िल का नहीं ठिकाना है।
बीच भँवर में नाव फँसी है,
पास नहीं किनारा है।

कहाँ जाए, हम किसे बुलाए,
कोई नहीं सहारा है।
पल-पल साँसे घुटती है,
साथ नहीं हम साया है।

यह जीवन का चक्र है,
एक अटूट सत्य है।
अकेले ही आए हैं,
अकेले ही जाना है।

फिर किस बात का रोना है,
यह जग एक खिलौना है।
भौतिक सुख सब व्यर्थ हैं,
आय ख़र्चने का श्रोत है।
जागो सो कर जीने वालो,
जीवन का एक अर्थ है।


रचनाकार : दीपक झा 'राज'
लेखन तिथि : 12 फ़रवरी, 2005
            

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