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समानता का अधिकार (आलेख)

सुनने कहने में कितना मीठा, प्यारा लगता है "समानता का अधिकार"।
पर जरा धरातल पर आकर देखिए। हर क्षेत्र में सिर्फ़ विडंबनाएँ हैं। हम सब भी उनका समर्थन निहित स्वार्थों की परिधि में ही करते है। पहले व्यक्तिगत, फिर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और सैद्धांतिक रूप से आंकलन करते हैं।
आज़ादी के इतने साल बाद भी पुरष स्त्री में भेद हमें मुँह चिढ़ा रहा है। इसके लिए हमारी मातृशक्तियों में भी ललक और एक राय नहीं है, फिर भी दोषी पुरुषों को ही ठहराया जाता है।

आरक्षण को किस समानता कि श्रेणी में रखा जाए, जबकि आरक्षण प्राप्त एक बड़ा वर्ग खोल से बाहर नहीं निकल सका है और न ही निकल सकेगा। क्योंकि अधिकांश की निरीह मानसिकता उनकी राह का काँटा है। अयोग्य व्यक्ति को आरक्षण का लाभ देकर व्यक्ति का भला भी पूर्णरूप से हो रहा है, यह विश्वास से कह पाना कठिन है। ऊपर से योग्य व्यक्ति की मानसिकता कुंठित कर हम किसका भला कर रहे हैं।
शिक्षा से लेकर नौकरी तक आरक्षण का लाभ देकर देश/समाज में हम किस समानता पर हम घमंड करते है।आरक्षण का लाभ, जीवन जीने, आर्थिक सुविधा, सामाजिक सहयोग की भावना विकसित करने तक तो उचित है, मगर योग्यता से समझौता व्यक्ति से लेकर राष्ट्र तक के लिए घातक है। जिसके अनेक उदाहरण दिख ही जाते हैं, ऊपर से योग्यता का वास्तविक लाभ से राष्ट्र भी वंचित हो रहा है। हालत यही रहने वाला है। क्योंकि राजनीतिक पार्टियाँ सत्ता के परिप्रेक्ष्य में ही इसका दोहन करने पर आमादा है।
जिसका खामियाजा देश को भुगतना निश्चित है। क्योंकि योग्यता निरीह बन रही है और अयोग्यता मालपुए खाकर योग्यता का खुला मज़ाक उड़ा रही।

रंगभेद अपने देश में पूरी तरह मिटा नहीं है। जब तब इसके शिकार अपनी पीड़ा बयान कर ही देते हैं। इसका ताज़ा उदाहरण पूर्व क्रिकेटर एल॰ शिवराम कृष्णनन के बयान हैं, जिसका दंश वे ख़ुद क्रिकेट जीवन में झेल चुके हैं और अब अपनी पीड़ा को सार्वजनिक कर रहे हैं।

जाति धर्म के नाम पर विभेद होता है। अपराध तक का विश्लेषण और कार्यवाही बहुत बार इसी आधार पर होता है और हम भी कम नहीं हैं जो अपराध की गंभीरता स्वरूप के बजाय जाति धर्म के चश्मे से देखते हैं।

जनसंख्या नियंत्रण का सारा खेल किस समानता के दायरे में आता है। शादी विवाह, संबंध विच्छेद में कहाँ समानता है?
एक देश, एक विधान, एक संविधान भी संभवतः पूरी तरह सच नहीं दिखता, अलबत्ता सरकार इस दिशा में आगे बढ़ रही है, जो स्वागत योग्य है।
देश के ख़िलाफ़ कार्य संस्कृति, देश को दुनियाँ के सामने नीचा दिखाने की कोशिशें, भड़काऊ भाषण, देश को गाली देने और उनके ख़िलाफ़ होने वाली कार्य संस्कृति कौन सी समानता है। धर्म के नाम पर किसी भी एक वर्ग को खुली छूट को समानता के किस तराजू पर तौलना चाहिए?

हर क्षेत्र में बहुत सी कम या ज़्यादा असमानताएँ हैं। बस उसे राष्ट्रहित में देखने और मज़बूत इच्छा शक्ति से ही दूर किया जा सकता है। जिसके लिए सरकार की जो ज़िम्मेदारी है, वो तो है ही, हमारी भी ज़िम्मेदारी कहीं से कम नहीं है।
भविष्य को ध्यान में रखते हुए हम सबके साथ सरकारों को भी सचेत होना होगा, अन्यथा सिर पर हाथ रखकर पछताने के सिवा कुछ भी हाथ नहीं आएगा। तब समानता का अधिकार सिर्फ़ स्लोगन बनकर रह जाएगा।


लेखन तिथि : 29 नवम्बर, 2021
            

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