भीमराव आम्बेडकर की रचना हूँ मैं,
कहने को राष्ट्र का सम्मान हूँ मैं।
कहने को समानता का पोषक हूँ मैं,
कहने को आवाज़ की आज़ादी हूँ मैं,
कहने को भारत का संविधान हूँ मैं।
पर अंदर से टूटा-टूटा सा हूँ मैं,
कहीं कुछ बिखरा-बिखरा सा हूँ मैं।
विस्मृत सा हो रहा विधान हूँ मैं,
आरक्षण के लिबास में लिपटा हूँ मैं,
क्या मैं ही हूँ भारत का संविधान?
कितनी ही बार जलाया लोगो ने,
किया बार-बार मेरा अपमान।
माँ भारती के इस विधान ने,
देखे जलते अपने ही अरमान।
क्या मैं ही हूँ भारत का संविधान?
कई बार रोया हूँ मैं घुट-घुट,
जब हो जाते निर्णय मेरे विरुद्ध।
ख़तरे में नज़र आती मेरी अस्मिता,
जब इंसाफ़ का मार्ग होता अवरुद्ध।
क्या मैं ही हूँ भारत का संविधान?
बेबस से हो जाते मेरे प्रावधान,
जब बलात्कारियों का होता सम्मान।
बेक़सूर को हो जाती फाँसी,
क़ानून करता दोषियों का आचमन।
क्या मैं ही हूँ भारत का संविधान?
कानून के साथ होती आँख-मिचौली,
गवाह भी बदल देते अपने बयान।
अंधे क़ानून की दुहाई देकर,
करते मेरा अदालतों में अपमान।
क्या मैं ही हूँ भारत का संविधान?
शब्दों की कर के लीपा पोती,
करते वकील जज को आश्वस्त।
सजाते केस कुछ इस तरह कि,
ग़लत फ़ैसले भी हो जाते दुरुस्त।
क्या मैं ही हूँ भारत का संविधान?
इसी तरह अदालतों में सदा,
गला घुट दम निकलता मेरा म।
बेगुनाह को मिलती सज़ा,
और क़त्लेआम हो जाता मेरा।
क्या मैं ही हूँ भारत का संविधान?
हज़ारों संग्रामियों ने दी आहुति,
तब स्वतंत्र हुआ यह देश जहान।
जो शहीद हुए, उनकी राख पर,
रचा गया मैं भारत का संविधान।
क्या मैं ही हूँ भारत का संविधान?
डूब गया आस्थाओं का मंज़र,
बिखर गया मेरा अंतर्मन।
बिलख रहा हूँ, करता हूँ क्रुंदन,
मन में हो रही बड़ी ही घुटन।
क्या मैं ही हूँ भारत का संविधान?
व्यथित कर रहा मुझे यही सवाल,
क्या मैं ही हूँ भारत का संविधान?
जाने क्यों आहत हुई मेरी दास्तान,
जाने कहाँ खो गई मेरी पहचान?
काश मैं फिर पा जाता मेरा विधान?
क्या मैं ही हूँ भारत का संविधान?
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