आँखें-
सपने बग़ैर
भग्न खंडहर लगतीं हैं।
समय उलूक सा
आज बोल रहा।
संशय के दरवाज़े
खोल रहा।
उम्मीदें भी
मन को-
इक ठगिनी सा ठगतीं हैं।
ज़िंदगी मानो
बीहड़ हुई है।
अलसी का ढेर
खोजें सुई है।
भयावह रातों
में कुंठाएँ
क्यों उमगतीं हैं।
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