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सशंकित-चित्त (कविता)

चिर परिचित दो आँखें,
मुझे अपनी ओर बुलाती हैं।
पास जाता तो,
छुप जाती अँधेरी दीवारों के बीच।
एक आहट,
जिन्हे रोज़ महसूस करता हूँ।
रात्रि के अंतिम पहर में,
जब कुत्तों का भौंकना बंद हो जाता है।
जाकर देखता दरवाज़े पर,
वहाँ कोई नहीं होता।
उसी चाँदनी मिश्रित रात्रि में,
दूर खेतों के मध्य;
कोई लंबी छाया,
मेरी ओर आती प्रतीत होती।
अनिमेष मौन देखता रह जाता!
भयभीत हो जाता,
और चला जाता कई हज़ार शताब्दियाँ पूर्व।
उसी औघड़ की झोपड़ी में,
जहाँ वो बैठा रुधिर और माँस खा रहा है।
और घूर रहा मुझे,
अपनी रक्तिम नेत्रों से।
शमसान से,
भयानक स्वर सुनाई देता।
कुछ लोग मृतक को कंधे पर रखे;
चले जा रहे हैं।
उसी पुराने पीपल के वृक्ष के नीचे,
जहाँ प्रत्येक रात के तीसरे पहर में;
मरे लोगों की आवाज़ें सुनाई देती हैं।
वहीं कुछ दूरी पर,
किसी पुराने राजा का किला दिखाई देता है।
जहाँ अँधेरा घहराते ही,
किसी औरत की करुणा मिश्रित चीख़ सुनाई देती।
जो मेरा नाम पुकार,
अपने बचाव का गुहार लगाती।
उस आवाज़ को सुन,
मै भागना चाहता हूँ, पर
मेरे पाँव गड़ जाते हैं धरा में।
या ऐसा लगता है;
जैसे हज़ारों मीलों की पद-यात्रा से लौटे हों।
मेरी आत्मा याचना करती है,
गृह-प्रस्थान के लिए।
उससे पूर्व मेरा पार्थिव शरीर,
भू पर पड़ा दिखाई देता है।
जिसकी आँखें खुली,
आकाश का सीना फाड़े;
अपलक देख रही हैं;
मुक्ति के लिए,
सतत।


रचनाकार : प्रवीन 'पथिक'
लेखन तिथि : 11 मार्च, 2022
            

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